Poems
Let’s talk of ‘rape’,
Let’s talk of rape,
but without ceasing its ‘marital’ prefix
हिजाब पहना तो मारेंगे
जींस पहना तो मारेंगे
बुर्का पहना तो मारेंगे
टाँगें दिखाई तो मारेंगे
घूँघट हटाया तो मारेंगे
बोली तो मारेंगे !
न बोली तो मारेंगे !
हमारे घर आई थी एक नन्हीं परी सारे आंगन में जैसे खुशियां थी सजी।
जाने कितने अरसे बाद थी देखी ऐसी मुस्कान, एक पल की नज़रों ने डाली थी बंजर दिलों में जान।
जब -जब तुम कहते हो,
तुम कर ही क्या सकती हो
औरत हो बस
घर में ही रह सकती हो।
वैशाली मान (दिल्ली विश्वविद्यालय) मैंने देखा है समाज बदल रहा है, धीरे धीरे लैंगिक समानता को स्वीकार कर रहा है। मगर फिर भी औरत को ही हमेशा आगे बढ़ने से…
The kohl under my eyes is a daunting reminder of the witches they set ablaze, did the ashes come from charred bigotry or forged piety? I’m yet to know.
The scars are from all those times the wolves deceived the lambs and preyed on chastity.
All those times the lioness was mistaken as a lamb and pressed against satirical cages.
कभी सिसकती बालाओं की, सुध लेती थी जनता सारी, आज चहकती अबलाओं की, चिता सजाने की तैयारी।। कब तक ऐसी दशा रहेगी? कब तक तांडव क्रूर चलेगा? क्या अब भी…
A woman has died in me A woman of disease with a lack of peace. An animal who would toil and ask nothing A dried leaf who would flutter and…