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आत्मनिर्भर

By राजेश ओ.पी.सिंह

भारत अपनी आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर “आजादी का अमृत महोत्सव” मना रहा है, परंतु 21वीं सदी के आजाद भारत में लड़कियां और उनके माता पिता आज भी दहेज जैसी कुप्रथा से जूझ रहे हैं।

आजाद भारत में भारत सरकार ने आज से 61 वर्ष पूर्व “दहेज प्रतिषेध अधिनियम,1961” के तहत दहेज प्रथा पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाया और इस अधिनियम में सजा का प्रावधान भी किया था। कानूनी रोक के बावजूद भी भारत में बिना किसी जाति, वर्ग या क्षेत्र के विभेद के धड़ल्ले से दहेज लिया जा रहा है और हम निरंतर दहेज के लिए प्रताड़ित महिलाओं को आत्महत्या करते अखबारों में पढ़ रहे हैं, हम रोज देखते है की देश भर में अनेकों महिलाएं केवल कम दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जा रही हैं।

स्टाटिस्ट रिसर्च डिपार्टमेंट के एक सर्वे के अनुसार वर्ष 2019 में लगभग 7100 महिलाओं ने दहेज के लिए प्रताड़ना से तंग होकर या तो आत्महत्या की या उन्हें जबरदस्ती मार दिया गया।

प्रश्न ये है कि जब एक लड़की अपनी पहचान, अपनी यादें,अपने माता पिता, अपना घर ,अपना गांव आदि सब कुछ छोड़ कर किसी लड़के के साथ शादी करके आती है तो उसे इसके साथ साथ इतना समान और पैसे क्यों लेके आने पड़ते हैं?

भारतीय समाज में सदियों से ये प्रथा चली आ रही है कि सबसे पहले एक माता पिता अपनी लड़की किसी पराए पुरुष को सौंपे, फिर दहेज का समान और पैसे दे और उसके साथ साथ पुरुष परिवार के संग आए सभी (लोगों) बारातियों को खाना भी खिलाए।

इन्ही कुरीतियों की वजह से समाज में लड़की होने पर जश्न नहीं मनाया जाता, लड़की के जन्म से ही उसे पराया धन समझा जाने लगता है I इसलिए उसकी पढ़ाई और स्वास्थ्य पर भी ना के बराबर खर्च किया जाता है क्योंकि ये मान लिया गया है कि लड़की चाहे जितनी पढ़ी लिखी हो, जितनी सक्षम हो इसके बावजूद उसकी शादी में धन तो खर्च करना ही पड़ेगा और ये सब लड़के की जॉब, उसकी पढ़ाई लिखाई, उसके घर के स्टेटस के हिसाब से लड़की के परिवार को खर्चना पड़ता है। अधिकतर राज्यों और समाजों में लड़के के पारिवारिक संपति और जॉब के हिसाब से मूल्य तय है, जैसे लड़का अ श्रेणी में अफसर है तो उसे 1 करोड़ के आसपास दहेज मिलने की संभावना है, उस से नीचे पद का थोड़ा कम मूल्य है।

इस सबके अलावा हम देखें तो पाएंगे कि पति और पत्नी का रिश्ता बराबर का रिश्ता है, प्यार और सम्मान का रिश्ता है I दोनो को टीम के रूप में काम करना होता है, दोनो को मिल कर निर्णय लेने होते हैं परंतु फिर भी महिलाओं को (पत्नियों) को क्यों हर कदम पर खुद से समझौता क्यों करना पड़ता है ?

इन सभी प्रश्नों के संबंध में बातचीत करते हुए नेशनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन, सिरसा के सहायक प्रोफेसर डा. विनोद कुमार पिलनी ने कहा कि “दहेज प्रथा न तो तार्किक है और न ही धार्मिक है”। सभ्य समाज में इसका कोई स्थान नहीं है, दहेज पाप है, जो भारत में संस्कृति और परंपरा के नाम पर लंबे समय से चला आ रहा है। उन्होंने बताया कि वे भारतीय संविधान और संविधान निर्माता बाबा साहेब डा. भीम राव अंबेडकर की महिलाओं के संबंध में कही गई प्रत्येक बात पर अमल करते हैं और हर संभव उसकी पालना भी करते हैं, जैसे इन्होने अपनी शादी एक पढ़ी लिखी लड़की से बिना कुछ दहेज लिए, 26 जनवरी 2020 को की। इन्होंने बताया कि समाज में एक संदेश देने के लिए अपनी शादी के लिए 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) का दिन चुना चूंकि इस दिन लगभग हर बच्चा और माता पिता भारतीय संविधान की बात करते हैं ।

26 जनवरी के दिन बिना दहेज की शादी करके इन्होंने समाज में एक बड़ा संदेश छोड़ने का कार्य किया है। और आज जब बुद्ध पूर्णिमा है तो इन्होने निर्णय लिया है कि वो अपने बचे हुए जीवन में ऐसी किसी भी शादी में शामिल नहीं होएंगें जिसमे दहेज दिया जाएगा। अर्थात अब वो केवल उन्हीं शादियों में जायेंगे जो बिना दहेज के होएंगी। डा. विनोद कुमार पिलनी ने बताया कि समाज में बड़े परिवर्तन करने के लिए सबसे पहले खुद को बड़े निर्णय लेने पड़ते हैं और ऐसे बोल्ड निर्णयों का समाज और आम जन पर प्रभाव पड़ता है।

आज के समय में हम इस कुप्रथा को कैसे रोक सकते हैं? इसके लिए विद्वानों का एकमत है कि अपने बच्चों को चाहे वो लड़की हो या लड़का को बचपन से ही ये सिखाओ कि पति पत्नी का रिश्ता बराबरी का है और ये दोनो का एक संघ है जहां दोनो की अपनी अपनी भूमिका है जिनका निर्वहन दोनो को करना होगा।

इसके अलावा लड़कियों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ाया जाए ताकि वो अपने पैरो पर खड़ी हो सके और किसी पर भी निर्भर ना रहे, इस से भी समाज में एक संदेश जाएगा कि जब लड़का और लड़की दोनो एक जैसी नौकरी कर रहे हैं तो फिर दहेज किस बात का दिया जाए।

लड़कियों को आत्मनिर्भर बना कर ही इस प्रथा पर गंभीर चोट मारी जा सकती है और अब समय आ गया है कि इस कुप्रथा को खत्म होना ही चाहिए।

हम सभी को मिल कर इसे रोकने के प्रत्येक उपाय पर घोर चिंतन करना चाहिए और उसे लागू करना चाहिए ताकि समाज लड़कियों को बोझ समझना बंद कर दे और लड़कियों को भी लड़कों के बराबर सम्मान मिलना शुरू हो जाए।

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By राजेश ओ.पी.सिंह

मशहूर लेखक शिव कुमार बटालवी ने महिला शक्ति के लिए कहा है : नारी आपे नारायण है, हर मथे ते तीजी अख है, जो कुज किसे महान है रचिया, उस विच नारी दा हथ है। अर्थात हर महान पुरुष या स्त्री की सफलता के पीछे किसी ना किसी महिला का हाथ है।

ऐसे ही अनेकों विद्वानों ने महिलाओं की शक्ति के बारे में लिखा है पंरतु इस सब के बावजूद सदियों से ही महिलाएं अपनी पहचान के संकट से जूझ रही है, जैसे भवन के लिए सबसे आधारभूत चीज़ ईंट है वैसे ही मनुष्य के लिए “पहचान”। परन्तु फिर भी महिलाओं की स्थाई पहचान नहीं है, ये बदलती रहती है। यहां केवल पहचान ही नहीं बल्कि रहना सहना, खाना पीना, रीति रिवाज, देवी देवता तक समय अनुसार बदलते रहते हैं।

हम बात कर रहे हैं कि एक महिला को शादी के बाद अपना गौत्र क्यों बदलना पड़ता है? और ये केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में हो रहा है। विकसित, विकासशील या अविकसित कोई भी देश इस से अछूता नहीं है। इसमें अमीरी गरीबी, जाति, रंग आदि किसी का कोई भेद नहीं है अर्थात यदि कोई लिंग से महिला है तो ये निश्चित है कि शादी के बाद उसका गौत्र बदल जाएगा। जन्म से लेकर युवावस्था तक जिस गौत्र या पहचान के लिए उसने संघर्ष किया ,जिस गौत्र या पहचान पर उसे गर्व था बस केवल शादी कर देने से उसे वो गौत्र और पहचान छोड़नी पड़ती है।

हम देखते हैं कि दुनिया के सबसे विकसित देश इंगलैंड की सबसे मजबूत प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर शादी से पहले मारग्रेट हिल्डा के नाम से जानी जाती थी, परंतु इनके पति थैचर परिवार से थे तो शादी के बाद इनके नाम के आगे से हिल्डा गौत्र (पहचान) गायब हो गया और थैचर गौत्र जुड़ गया,

ऐसे ही अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन शादी से पहले हिलेरी डियान रोधम के नाम से जानी जाती थी परन्तु शादी के बाद इनके पति क्लिंटन गौत्र के थे तो इनके नाम के आगे भी क्लिंटन लग गया ।

भारत में इंदिरा नेहरू का इंदिरा गांधी बनना, ऐश्वर्या राय का ऐश्वर्या राय बच्चन बनना, करीना कपूर का करीना कपूर खान बनना भी इसी प्रकिया का परिणाम है। यहां हम बहुत ही मजबूत और प्रगतिशील महिलाओं की बात कर रहें हैं जिनकी विश्व में अपनी एक अलग पहचान है परन्तु इन्हे भी अपनी पहचान शादी के बाद बदलनी पड़ी है। ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों एक पुरुष को कुछ नहीं बदलना पड़ता वहीं एक महिला को अपना घर, माता पिता, गौत्र, पहचान आदि सब कुछ बदलना पड़ता है?

पुराने समय में माना जाता था कि एक लड़की जैसे ही अपने पिता का घर छोड़ती है वैसे ही उससे अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी पहचान , यादें , सपने, संबद्ध सब कुछ त्याग दे क्योंकि उस समय एक महिला पूर्ण रूप से पुरुष पर निर्भर थी परंतु ये उस समय भी ग़लत था कि केवल निर्भरता की वजह से उसे अपना आत्मसम्मान खोना पड़े और अब जब महिलाएं हर क्षेत्र चाहे आर्थिक क्षेत्र हो या सामाजिक में आत्मनिर्भर हैं तब भी उसे ये आजादी नहीं मिल रही है,इससे साफ होता है कि निर्भरता वाली अवधारणा सरासर ग़लत अवधारणा थी जो महिलाओं को बरगला रहा थी।

कुछ पुरुष विद्वान मानते हैं कि ये प्यार और समर्पण का चिन्ह है, ये व्यक्तिगत पसंद ना पसंद का मुद्दा है परन्तु हमारा प्रश्न है कि ये केवल महिला के लिए ही आवश्यक क्यूं है? जबकि हम देखते है की शादी एक बराबरी का रिश्ता है, जिसमे दोनों एक दूसरे को सम्मान करते हैं, इसलिए जब रिश्ता समानता पर आधारित है तो सब कुछ छोड़ना महिला को ही क्यों पड़ता है।

ऐसे अनेकों उदाहरणों से समझा जा सकता है कि कैसे महिलाओं को अपनी पहचान बदलनी पड़ती है और विद्वानों ने समय समय पर इसे सही ठहराने के लिए अनेकों उदाहरण दिए है परन्तु ये सरासर गलत है और इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है “समाज की पितृसत्तात्मक सोच” । प्रत्येक समाज में पुरुषों का वर्चस्व है और जिनका वर्चस्व होता है उनकी पहचान को कभी कोई संकट नहीं आता, संकट आता है तो उन्हें जिनका वर्चस्व नहीं है या जिनका वर्चस्व कमज़ोर है।

एक महिला अपने बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में पालती है, फिर उसके जन्म के बाद भी उसे पालने में ज्यादा मेहनत और भागदौड़ महिला को ही करनी पड़ती है परन्तु जैसे ही बच्चा जन्म ले लेता है तुरंत उसे उसके पिता की पहचान मिल जाती है, जिस महिला ने उसे पैदा किया है वह महिला उसे अपनी पहचान नहीं दे पाती क्योंकि उसकी खुद की कोई स्थाई पहचान है ही नहीं, उसके पास जो पहचान है ये या तो उसके पिता की है या उसके पति की। जब उसे अपनी मां को पहचान नहीं मिली तो कैसे वो अपने बच्चे को अपनी पहचान दे सकती है।

ये पहचान का संकट सदियों से बना हुआ है, परंतु इसे अब दूर करना होगा और महिलाओं को भी स्थाई पहचान प्रदान करनी होगी ताकि वो भी सारी उम्र अपने पहचान पर गर्व कर सके, उसके लिए जी सके, उसके लिए लड़ सके। और ये सब समाज में पित्त्रस्तत्मक सोच को ख़त्म करके ही किया जा सकता है। इसलिए हमें हर कदम पर पितृसत्तात्मक सोच पर वार करना होगा और महिलाओं को इस बारे में और जागरूक करना होगा ।

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