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समाज

राजेश ओ.पी. सिंह ; सना खान (इंडिपेंडेंट स्कॉलर)

विश्व में गुजरात राज्य एक बार फिर चर्चा में बना हुआ है I हालांकि गुजरात और गुजराती हमेशा से अपने अविश्वसनीय कार्यों और महापुरुषों के व्यक्तित्व के कारण चर्चा में बना रहा है, परंतु इस बार चर्चा का कारण ‘बिंदु’ की ऐतिहासिक शादी है। 9 जून 2022 भारतीय इसिहास में अहम हो गया जब गुजरात की बिंदु नाम की लड़की ने भारत में शादी को लेकर सारी मौजूदा परम्पराओं और अवधारणाओं को तोड़ कर खुद से शादी कर ली!

भारतीय समाज में शादी का मतलब ही ये माना जाता रहा है कि ये एक पुरुष और महिला के बीच ही हो सकती है | क्योंकि शादी नामक संस्था बनाई ही इसलिए गई ताकि एक पुरुष का एक महिला से मिलन हो सके क्योंकि ऐसा माना जाता रहा है कि पुरुष और महिला अपने आप में पूर्ण नहीं है बल्कि वे एक दूसरे के संपूरक हैं।

इतना ही नहीं ये भी कहा जाता है कि प्राकृतिक रूप से भी महिला को पुरुष की आवश्यकता होती है और पुरुष को महिला की, बिना एक दूसरे के ये अधूरे हैं। परंतु बिंदु ने भारत में व्याप्त सारी अवधारणाओं को तोड़ दिया है और खुद से शादी करके एक नई मिसाल पैदा की है,जिसकी रोशनी आने वाली पीढ़ियों तक जाएगी।

ऐसी शादियों को जो खुद से की जाए उन्हें “सोलोगैमी” कहा जाता है। इस अवधारणा को मजबूत करने के लिए विश्व के अनेक हिस्सों में फिल्में भी बनी हैं I जैसे वर्ष 2017 में “आई मि वेड” नामक कैनेडियन टीवी सीरीज जो कि एक इसाबेल डॉर्डन नाम की महिला पर आधारित है, ये महिला शुरू में अपने लिए पार्टनर ढूंढती है परंतु जीवन और परस्थितियों में आए भारी बदलावों की वजह से खुद से शादी करने का फैसला करती है।

वहीं 2020 में “रोसाज वैडिंग” जो की रोजा नामक लड़की पर आधारित है ,जो अपने काम के ड्रामे और परिवार के बीच फंसी होती है, बाद में वह इन सबसे निकलने का सबसे उपयुक्त तरीका खुद से शादी करने का निकालती है I यह एक स्पेनिश फिल्म है।

सोलोगैमी को महिलाओं के पक्ष से सकारात्मक तौर पर ही लिया जाना चाहिए क्योंकि इससे सबसे प्रमुख तो महिलाओं को शादी के बाद अपनी स्वतंत्रता किसी के साथ सांझी नहीं करनी पड़ती I उन्हे निर्णय लेने में किसी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती I इसमें सारे निर्णय खुद के तर्क से लिए जाते हैं, किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रहती – जो मन चाहे वो करने की स्वतंत्रता। इसमें सबसे प्रमुख ये भी है कि इसमें महिला को घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होना पड़ता।

इसके अनेकों फायदे गिनवाए जा सकते हैं परंतु एक अहम प्रश्न ये है कि किसी महिला को शादी करनी ही क्यों होती है या उसे करनी ही पड़ती है? जब एक पुरुष भारतीय समाज में बिना शादी के अपना जीवन यापन कर सकता है, कुछ मर्जी से, कुछ लड़की न मिलने की वजह से, तो एक महिला या लड़की बिना शादी के क्यों नहीं रह सकती? क्यों उसे परिवार और समाज के दबाव के आगे झुकना पड़ता है, क्यों समाज उसे अविवाहित स्वीकार नहीं करता?

यदि भारतीय समाज बिंदु को भी अविवाहित स्वीकार कर लेता , उसे उसके हिसाब से जीने देता तो उसे ये विवाह का खर्च भी न करना पड़ता।

सोलोगैमी भारतीय समाज और इसकी परंपराओं पर एक बड़ा तमाचा है और ये दिखा रहा है कि यदि आप अविवाहित लड़की को स्वीकार करोगे ही नहीं तो हम ऐसे खुद से शादी कर लेंगे I कहने को कागजों में शादीशुदा लिखा जाने लगेगा परंतु आपकी जो मंशा है की पति के नाम में किसी पुरुष का नाम ही लिखा जाए वो धरी की धरी रह जायेगी।

बिंदु ने भारत की अनेकों महिलाओं को एक नया रास्ता दिखाया है जो उन्हे स्वतंत्रता और आत्मसम्मान की तरफ ले जा रहा है और सोलोगैमी के रूप में ऐसा विकल्प सामने ला दिया है कि जब परिवार और समाज आप पर शादी का दबाव बनाने लगे तो आप ऐसे खुद से शादी करके बिना अपनी आत्म स्वतंत्रता और आत्म सम्मान खोए, उनके दबाव को न केवल शांत ही कर सकती हैं बल्कि मुंहतोड़ जवाब भी दे सकती हैं।

परंतु सोचने का विषय ये है कि भारत जैसे देशों में जब लेस्बियन, गे, और बायसेक्सुअल जैसी सच्चाई को स्वीकार नही किया गया है जो कि प्राकृतिक है, तो अब ये देखना दिलचस्प होगा कि सोलोगैमी पर भारतीय समाज और इसके संचालकों की क्या प्रतिक्रिया आएगी। और क्या बिंदु अपने ऐतिहासिक और लीग से हटकर लिए गए फैसले को सफल साबित करके आने वाली पीढ़ियों और समाज के सामने एक नया आइना और रोशनी पेश कर पाएगी? ये तो समय ही बताएगा पंरतु भविष्य में यदि हमें सोलोगैमी शादियां और भी देखने को मिले तो हैरानी की कोई बात नहीं हैं।

मुख्य शब्द :

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राजेश ओ.पी.सिंह

आज पूरे विश्व को एक ग्लोबल गांव की संज्ञा दी जाने लगी है अर्थात वैश्वीकरण से सारा विश्व आपस में जुड़ गया है, देशों के बीच कोई रुकावटें नहीं रही हैं, सभी देश आपस में व्यापार व अन्य संधियां कर रहे हैं और तो और इस दौर में बांग्लादेश जैसे तीसरी दुनिया के देश भी विश्व मानचित्र पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाने में सफल हो रहे हैं। परन्तु वैश्वीकरण व विकास के इस दौर में भी पुरुष – महिला के बीच का भेद अभी भी जैसे का तैसा बना हुआ है और ये कम होने की बजाए ज्यादा हो रहा है।

वैश्वीकरण के इस दौर में भी समाज और परिवार चाहता है कि लड़कियां शादी करें ही करें क्योंकि आज भी समाज अकेली महिला या लड़की को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। 

शादी को प्रत्येक लड़की के जीवन का सबसे अहम संस्थान बना दिया है, वहीं यदि लड़के शादी ना करे तो कोई परेशानी नहीं होती , ना समाज को और ना ही परिवार को।

शादी ना करने वाली लड़की पर तथाकथित समाज ,परिवार व रिश्तेदार आदि ना जाने क्या क्या तंज कसते है, संस्कृति व धर्म का दबाव बनाते है, उसे महसूस करवाने की कोशिश की जाती है कि स्त्री के सिर पर पुरुष का साया होना कितना आवश्यक है, कितने ही ऐसे काम बता दिए जाते है जो बिना पुरुष के अकेली लड़की नहीं कर सकती, बार बार उसका नाम किसी भी पुरुष या लड़के के साथ जोड़ा जाता है और उसे अपमानित करने का प्रयास किया जाता है। अर्थात एक महिला को अपने हिसाब से अपनी मर्ज़ी से रहने का कोई अवसर या हक नहीं दिया जाता I उसे प्रचलित परम्पराओं के आधार पर ही जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है। यदि हम तुलना करें तो पाएंगे कि 100 लड़कों को तुलना में केवल 3-4 लड़कियां ही है जो बिना शादी के रह पाने में सफल होती हैं और ये भी केवल देश के महानगरों में संभव है।

हालांकि हम देखते हैं कि इंग्लैंड के बुद्धिजीवी “जॉन स्टुअर्ट मिल” ने 1869 में लिखी अपनी पुस्तक ‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमेन’ में लिखा कि “आज के युग में विवाह ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां दास प्रथा अब भी मौजूद है। हमारे विवाह कानून के माध्यम से पुरुष एक मनुष्य के उपर पूरा अधिकार प्राप्त करते हैं। हासिल करते हैं मालिकाना हक और हुकूमत। हासिल करते हैं तलाक और बहुविवाह जैसी अश्लीलता की पूरी छूट।” इतने वर्षों पूर्व में ये कहा गया परन्तु भारत में स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है।

और लड़की की समस्याएं शादी करने तक नहीं बल्कि शादी के बाद और ज्यादा बढ़ जाती हैं I जैसे हम देखें की लड़का और लड़की दोनों शादी के बाद नौकरी करते हैं और यदि किन्हीं कारणों से लड़के का तबादला किसी दूसरी जगह हो जाए तो पूरा परिवार, रिश्तेदार और तथाकथित समाज ये आशा करता है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ नई जगह पर जाएगी, ताकि उस लड़के को वहां पर कोई परेशानी ना झेलनी पड़े, परेशानी मुख्यत घर संभालने की, खाना बनाने की, सफाई करने की आदि। और इसके लिए यदि उस नौकरी भी छोड़नी पड़े तो छोड़ दे। इस प्रकार पति को समस्यायों से बचाने के लिए पत्नी को समस्याओं में डाल दिया जाता है,  बिना उसकी रजामंदी के।

वहीं यदि इसका उल्टा हो जाए कि पत्नी का तबादला कहीं नई जगह पर हो जाए तो लगभग 100 फीसदी मामलों में उसका पति उसके साथ नहीं जाता, नौकरी छोड़ना तो बहुत दूर की बात। इस पर लड़की को समझाया जाता है कि यदि तुम नौकरी के लिए चली जाओगी तो यहां तुम्हारे पति को तुम्हारे बिना समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इसलिए तुम नौकरी छोड़ दो और यहीं रहो। दोनों ही मामलों में नुकसान लड़की को ही उठाना पड़ रहा है।

इस से हम देख सकते हैं कि आज भी समाज स्त्रियों को पुरुषों की परेशानियां दूर करने का केवल यंत्र मात्र मानता है।

आजकल तलाक और शादी टूटने की संख्या बढ़ रही है, क्यूंकि आजकल पढ़ी लिखी नौकरी करने वाली महिलाओं ने मौजूदा रूढ़िवादी व्यवस्था कि चुनौती देना शुरू कर दिया है, महिलाओं में इच्छाएं जागृत होने लगी है कि वो भी किसी रविवार को सुबह आराम से उठे, पूरा दिन आराम करे, अखबार पढ़े और उनके पति घर के सारे काम करे, परन्तु महिलाओं की ऐसी इच्छाओं से पुरुषों को परेशानी हो रही है इसलिए उनके पास एक ही विकल्प बचता है कि जब काम खुद ही करना है तो फिर इसके साथ रहना ही क्यों है।

परन्तु पुरुष ये नहीं देखते कि जब पुरुष और महिला दोनों नौकरी करते हैं तब महिला को नौकरी के साथ साथ घर के कार्य भी करने पड़ते है इसलिए उस पर काम करने की दोहरी जिम्मेवारी और भार आ जाता है और जब कभी भी वह अपना भार कम करने कि सोचती है तब उसे तलाक जैसी धमकियां मिलती हैं, तलाकशुदा महिला को समाज में अपमानित नज़रों से देखा जाता है, जगहों जगहों पर तरह तरह की मनगढ़ंत बातें घड़ी जाती है और उसके चरित्र पर टिका टिप्पणी की जाती है। परन्तु इस सबके बावजूद अब महिलाओं ने अपने हकों के लिए बोलना शुरू कर दिया है बिना इसकी परवाह किए की समाज क्या कहेगा।

समाज और परिवारों की ऐसी संकीर्ण सोच के चलते देश का पूर्ण रूप से विकास नहीं हो पाता क्योंकि इससे आधी आबादी को वर्जित किया जा रहा है। यदि कोई समाज या देश पूर्ण रूप से विकसित होना चाहता है तो आवश्यक है कि महिलाओं को जीवन के हर स्तर पर सहयोग किया जाए और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्हें उनकी भागीदारी दी जाए।

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राजेश ओ.पी.सिंह

“पौ फटने पर गोधूलि तक,

महिला करती श्रम,

पुरुष उसकी मेहनत पर जीता है, मुफ्तखोर,

क्या इन निकम्मों को मनुष्य कहा जाए” 

( सावित्री बाई फुले की ” क्या उन्हे मनुष्य कहा जाए” नामक कविता से)

सावित्री बाई फुले का जन्म आज ही के दिन (3 जनवरी 1831) में महाराष्ट्र में हुआ था,उनका जन्म उस समय हुआ जब भारत में सभी औरतों के लिए बड़े कड़े नियम थे और उस दौर में बाल विवाह ,सती प्रथा, बालिका भ्रूण हत्या आदि कुरीतियां समाज में उपस्थित थीं। इन सभी में विधवा महिलाओं को स्थिति सबसे नाजुक थी, क्यूंकि बाल विवाह के कारण बहुत बार ऐसा होता था कि जब लड़की 2-3 वर्ष की होती तभी उसके पति का देहांत हो जाता और वो फिर तभी से विधवा हो जाती और सारी उम्र विधवा के रूप में बीताती, विधवाओं को समाज में कोई सम्मान से नहीं देखता था, बेवसी में उनके परिवार वाले ही उन बच्चियों का नाजायज फायदा उठाते, अनेकों बार तो गर्भ पति विधवाओं को आत्महत्या करनी पड़ती या उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया जाता। 

जन्म से ही बच्चियों को घर के कार्यों में सलांगित करना शुरू कर दिया जाता था और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार बंद थे और ये माना जाता था कि महिलाओं को पढ़ना लिखना नहीं चाहिए क्योंकि इनका कार्य सेवा करना है इसलिए इनके लिए पढ़ना लिखना अपराध माना गया ।  

इसी दौर में जब सावित्री बाई फूले का जन्म हुआ तो वो भी इस से अछूती ना रह पाई और मात्र 9 वर्ष की बाल आयु में ही उनका विवाह ज्योतिबा फूले ( जो कि बाद में अपने कठिन प्रयासों और मेहनत के बल पर अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिल कर महान समाज सुधारक के रूप में सामने आए) से कर दिया गया। और जैसे कि यूनेस्को आज भी मानता है कि महिला के विकास में सबसे ज्यादा अवरोधक उसकी कम उम्र में शादी करने से पैदा होता है, जिससे उसका ना केवल शारीरिक बल्कि मानसिक विकास भी नहीं हो पाता , परन्तु सावित्री बाई फूले के जीवन में कुछ अलग ही होना था, उन्हें ज्योतिबा सरीखा पति मिला जो कि खुद भी पढ़ाई कर रहे थे और समाज की बुराइयों को देख और समझ कर उन्हे दूर करने के अपने प्रयास में लगे हुए थे।

ज्योतिबा फुले ने देखा कि महिला शिक्षा ना होने की वजह से समाज को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है, इसलिए महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने प्रयत्न करने शुरू किए जो कि उस समय में बहुत ही चुनौती का कार्य था, परन्तु ज्योतिबा फूले पीछे हटने वालों में से नहीं थे इस सिलसिले में उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले को पढ़ाने लिखाने का सोचा और प्रतिदिन उन्हें सीखाना शुरू किया, बहुत कम समय में ही सावित्री बाई फूले पढ़ना लिखना सीख गई तो ज्योतिबा ने उन्हें अन्य लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया।

1848 में फूले दंपति ने भिड़े वाडा, पुणे में लड़कियों के लिए भारत में प्रथम कन्या स्कूल खोला (इससे पहले केवल अंग्रेज़ों द्वारा संचालित स्कूल ही थे) और स्कूल में लड़कियों को शिक्षा देने का कार्य शुरू किया और बहुत कम समय में इनके स्कूल में वहां के लड़कों के सरकारी स्कूल की संख्या से भी ज्यादा लड़कियां पढ़ने के लिए आने लगी, और ये फूले दंपति के लिए अतिउत्साह उत्पन्न करने वाला क्षण था, इसी से प्रेरणा लेकर बहुत कम समय में फुले दंपति ने स्कूलों की संख्या बढ़ाना शुरू किया और 1852 आते आते इनके स्कूलों की संख्या 18 हो गई और इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने इन्हे सम्मान प्रदान किए। इसके अलावा इन्होने गरीब बच्चों के लिए हॉस्टल भी खोले।

परंतु सावित्री बाई फुले का एक शिक्षक के रूप में सफर बहुत कठिनाइयों भरा रहा, जब उन्होंने स्कूल में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो तथाकथित समाज के ठेकेदारों ने इसका विरोध किया और इन्हे रोकने की हर संभव कोशिश करी परंतु ये जब नहीं रुकी तो ज्योतिबा के पिता को बोला कि महिला शिक्षा समाज के लिए अभिशाप है और ऐसा करने पर आगामी कई पीढ़ियां शोषण का शिकार रहती हैं, इस बात से डर कर ज्योतिबा के पिता ने फूले दंपति को रोकने कि कोशिश की परन्तु जब वो नहीं रोक पाए तो उन्होंने धमकी दी कि या तो घर छोड़ दो या ये पढ़ाने वाला कार्य, तो फूले दंपति ने घर छोड़ना स्वीकार किया परन्तु अपने लक्ष्य के आगे नहीं झुके।

इसके आलावा जब सावित्री बाई फूले स्कूल में जाती थी तो रास्ते में शरारती तत्व उन्हें परेशान करते थे उन पर पत्थर फेंकते यहां तक कि गोबर भी फेंकते थे जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते थे, परंतु सामने से उन शरारती तत्वों से यही कहती कि ” तुम्हारे ये प्रयास मुझे ज्यादा मजबूत करते हैं ,परमात्मा तुम्हारा भला करे” । इस वजह से सावित्री बाई को दो दो साड़ियां साथ लेके जाना पड़ता था ,एक वो पहन कर जाती थी और दूसरी साथ लेकर जाती थी, जिसे स्कूल में जाके पहनती थी क्यूंकि एक साड़ी रास्ते में शरारती तत्व गंदी कर देते थे।परंतु वो इन घटनाओं के बारे में घर पर ज्योतिबा को भी नहीं बताती थी फिर एक रोज़ ज्योतिबा को इस बार में पता चला तो उन्होंने अपने दो दोस्तों को सावित्री बाई के साथ जाने को कहा।

इन संघर्षों का सामना करते हुए समाज में परिवर्तन और नई चेतना लाने के लिए वो कविताएं भी लिखती थी,उनका पहला काव्य संग्रह ” काव्य फूले” नाम से 1854 में जब वो 23 वर्ष की थी तब आया, जैसे  उन्होंने अपनी एक कविता में महिला शिक्षा के बारे में लिखा है:- 

” स्वाभिमान से जीने हेतु, बेटियो पढ़ो लिखो खूब पढ़ो, 

पाठशाला रोज़ जाकर ,नित अपना ज्ञान बढ़ाओ

हर इंसान का सच्चा आभूषण शिक्षा है, 

हर स्त्री को शिक्षा का गहना पहनना है,

पाठशाला जाओ और ज्ञान लो”।

इन्होने शिक्षण पद्धति में भी सुधार करने के प्रयास किए , ज्यादा बच्चों को स्कूल की तरफ आकर्षित करने के लिए छात्रवृत्ति शुरू की। 

इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया गया वो ये था कि इन्होने विधवा महिलाओं के लिए अलग अलग जगहों पर केंद्र खोले जहां पर विधवा महिलाए रह सकती थी, पढ़ाई कर सकती थी और अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी। अर्थात समाज में महिलाओं से सम्बन्धित सभी कुरीतियों को ख़तम करने का हर संभव नए प्रयास किए गए।

1873 में अपने पति के साथ मिल कर “सत्यशोधक समाज” नामक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य लक्ष्य “सत्य चाहने वाले समाज के निर्माण” से था। इस संगठन का मूल सिद्धांत ‘ समानता की सिद्धांत ‘ था।

महिला सशक्तिकरण ,महिला शिक्षा और समाज में समानता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाली सावित्री बाई फूले का ऋण हम किसी भी प्रकार से चुका नहीं पाएंगे। उनके क्रांतिकारी और अहम योगदान के लिए ना केवल महिला वर्ग बल्कि पूरा भारत और विश्व उनका ऋणी रहेगा।

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