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By राजेश ओ.पी.सिंह

विश्व में ज्ञान के स्तम्भ माने जाने वाले भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर को केवल दलितों के उद्धारक बता कर सर्वसमाज और महिलाओं को उनके जीवनपर्यंत दिए गए योगदान को सीमित किया जाता रहा है। परन्तु यदि हम उनके लिखे लेखों, भाषणों और जीवन में किए गए महान कार्यों और आंदोलनों को देखें तो पाएंगे कि बाबा साहब ने प्रत्येक भारतीय के उत्थान के लिए कार्य किया है और सबसे खास देश की आधी आबादी (महिलाओं) के उत्थान के लिए अनेकों महान कार्य और त्याग किए हैं।

बाबा साहब का मानना था कि महिलाओं के सहयोग के बिना कोई भी समाज या देश विकास नहीं कर सकता, इसलिए उन्होंने कहा भी था कि ” मैं प्रत्येक समाज की उन्नति को महिलाओं की उन्नति से मापता हूं”, अर्थात केवल वही समाज या देश विकास की ओर जा रहा है जहां पर महिलाओं का भी विकास एक साथ हो रहा है।

बाबा साहब जीवनपर्यंत महिलाओं के विकास लिए कार्य करते रहे जिनमें से कुछ प्रमुख कार्य इस प्रकार है,जिनका आज भी उतना ही महत्व है जितना उस दौर में था।

1. 20 मार्च 1927 को महाड़ के सार्वजनिक कुएं में से दलितों को पानी भरने के लिए सत्याग्रह किया और इसी दिन उन्होंने दलित महिलाओं को साफ सुथरी साड़ियां पहनने को कहा। बाबा साहब द्वारा पानी के लिए किया गया ये पहला सत्याग्रह का सबसे ज्यादा सम्बन्ध महिलाओं से ही था क्यूंकि महिलाएं ही घर में पानी लाने के लिए ज़िम्मेदार मानी जाती है, इसलिए अब दलित महिलाओं को पानी लाने के लिए दूर तक जाने की आवश्यकता नहीं रही।

2. हिन्दू धार्मिक ग्रंथ ‘ मनुस्मृति ‘ जो कि समाज में सभी प्रकार की असमानताओं का जनक है, मनुस्मृति के अनुसार प्रत्येक पति चाहे वह कितना भी कमज़ोर क्यों ना हो को अपनी पत्नी पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए, बचपन में अपने पिता, शादी के बाद अपने पति और वृद्ध अवस्था में अपने बेटों के नियंत्रण में रहना चाहिए, महिलाओं को संपति के अधिकार से वंचित रखा गया, सती और बाल विवाह जैसी कुरीतियों में झोंका गया, इसलिए बाबा साहब ने कहा कि जो कोई धार्मिक ग्रंथ असमानता के जनक है ,एक व्यक्ति को श्रेष्ठ और एक को हीन बताते हैं, जो सदियों से शोषण का आधार बने हुए हैं उन सभी ग्रंथों को जलाया जाना चाहिए तभी समाज में एकता और समानता स्थापित की जा सकेगी, इसलिए बाबा साहब ने 25 दिसंबर,1927 को समानता स्थापित करने के लिए ” मनुस्मृति” का दहन करके संदेश दिया कि हम ऐसे किसी भी धार्मिक ग्रंथ को नहीं मानते जो असमानता पैदा करते हैं। और मनुस्मृति में महिलाओं के लिए जो जो चीजें प्रतिबंधित थी वो वो सब बाबा साहब “भारतीय संविधान” और “हिन्दू कोड बिल” में लेके आए।

3. वर्ष 1928 में ही बाबा साहब “मैटरनिटी बेनिफिट बिल” बॉम्बे विधानपरिषद में लेके आए और कहा कि जब कोई महिला मां बनने के लिए छुट्टियों पर होती है तब भी उस महिला को उसकी तनख्वाह का कुछ ना कुछ हिस्सा दिया जाना चाहिए ताकि वो अपना ध्यान अच्छे से रख सके और उसे पैसों के लिए इधर उधर कोई सहारा ना देखना पड़े। बाबा साहब द्वारा रखे इस बिल को बॉम्बे विधानपरिषद ने 1929 में स्वीकृति प्रदान कर दी और आजादी के बाद इसी बिल को “मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961” के रूप में भारत के सभी राज्यों लागू किया।

4. भारतवर्ष में डॉ. अम्बेडकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने “एक समान कार्य के लिए एक समान वेतन” बिना किसी लिंग भेदभाव के लिए मांग रखी।

महिलाओं का एक लंबे समय से समान काम के लिए समान वेतन का संघर्ष विश्व भर में चल रहा था तभी बाबा साहब ने वायसरॉय की कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री रहते हुए औद्योगिक कामगारों के लिए भारत में इसकी मांग उठाई और जब इन्हें भारतीय संविधान लिखने का अवसर प्राप्त हुआ तो संविधान के अनुच्छेद 39(4) में उन्होंने इसकी संवैधानिक व्यवस्था की।

5. इसके साथ साथ आजादी मिलते ही संविधान में जब पुरुषों को मताधिकार मिला तो महिलाओं को भी मिला। अर्थात बिना किसी भेदभाव के सभी महिलाओं को पुरुषों के बराबर मत मिला। यदि हम देखें तो इंगलैंड जैसे विकसित देश में मताधिकर के लिए महिलाओं को लंबे संघर्षों और आंदोलनों से गुजरना पड़ा और तब जाकर 1928 में वहां की महिलाएं मत डालने के लिए योग्य हुई, ऐसे ही अमेरिका में 1920 और फ्रांस में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए 1944 तक लम्बा इंतजार करना पड़ा। ये बाबा साहब ही थे जिन्होंने बिना किसी असमानता के तुरंत सभी महिलाओं को उनकी सामाजिक, आर्थिक ,राजनीतिक और शिक्षा आदि को एक तरफ रख कर सबसे पहले बराबर मताधिकार प्रदान किया।

6. बाबा साहब द्वारा महिलाओं के लिए किया गया सबसे बड़ा कार्य और त्याग “हिन्दू कोड बिल” था, बाबा साहब ने महिलाओं के उत्थान के लिए लगभग सभी प्रबंध भारतीय संविधान में कर दिए थे परन्तु जो कुछ रह गए थे और जिनका संबंध केवल महिलाओं से था को “हिन्दू कोड बिल” के माध्यम से पूरा करना चाहते थे। कानून मंत्री रहते हुए बाबा साहब ने हिन्दू कोड बिल का निर्माण किया जिसमें मुख्य रूप से महिलाओं को अपने पिता और पति की संपति में अधिकार दिए जाने का प्रावधान था, परंतु इस बिल को भारतीय संसद में रूढ़िवादी लोगों ने पास नहीं होने दिया और इस से बाबा साहब इतने आहत हुए कि उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। भारतीय इतिहास में ये केवल एकमात्र उदाहरण है जब किसी पुरुष मंत्री ने महिलाओं के उत्थान के लिए लाए गए बिल के पास ना होने कि वजह से इस्तीफा दे दिया हो, परंतु ये बात भारत की अधिकतर महिलाएं नहीं जानती कि उनके अधिकारों के लिए बाबा साहब ने अपना मंत्री पद तक त्याग दिया था। परन्तु अब धीरे धीरे इतने वर्षों में हिन्दू कोड बिल को अंशो अंशो में पास कर लिया गया है और ये बाबा साहब ही थे जिनकी बदौलत आज महिलाएं इन अधिकारों को प्राप्त कर पा रही है।

अंत में हम ये ही कहना चाहेंगे कि बाबा साहब ने अपने सम्पूर्ण जीवन का एक बड़ा हिस्सा केवल महिलाओं के उत्थान और उद्धार में लगाया परंतु भारतीय महिलाएं बाबा साहब के योगदानों से अनभिज्ञ (अनजान) है।

भारत में आज भी बाबा साहब को पढ़े और पढ़ाए जाने कि आवश्यकता है ताकि समाज में और महिलाओं में जागरूकता पैदा की जा सके और भारत को विकास के पथ पर अग्रसर किया जा सके।

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By राजेश ओ.पी. सिंह

कर्नाटक के उड़पी जिले से उभरा हिजाब सम्बन्धी विवाद सही मायनों में हमारी सहिष्णुता और

धर्म-निरपेक्ष मूल्यों पर सवालिया निशान लगाता है।

‘हिजाब मुद्दे’ से संबंधित खबरें और उसके साथ जुड़ी राय , वाद-विवाद, समर्थन-आलोचना आदि हम सब के सामने है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे का विश्लेषण करते समय तथ्यों और विचारों के बीच अंतर करना हमेशा महत्वपूर्ण होता है। इसी प्रकार हिजाब के मुद्दे पर विचार-विमर्श करते समय, यह आवश्यक है कि हम पाक कुरान शरीफ के सभी पहलुओं को पढ़ें और समझें, मुस्लिम उलेमा और विद्वानों की व्याख्या विवेचना को भी देखें और साथ ही साथ भारतीय संविधान को भी ध्यान में रखें और केवल स्कूल विषय को ही ना देखते हुए, एक व्यापक कैनवास में अधिकारों व चयन के पहलुओं को रखें।

पाक कुरान शरीफ के हवाले से यदि हम बात करें तो आयात 24:31 में पुरुष को ‘मोडेस्टी’ का पालन करने को कहा गया है। साथ ही, महिलाओं की पोशाक के संदर्भ में हिजाब का पाक कुरान में कोई उल्लेख नहीं है। हिजाब को केवल ड्रेसिंग के कोड के रूप में देखना गलत होगा। इसका सही मतलब एक ‘कोड ऑफ मोडेस्टी’ है जिसका अर्थ आपके समग्र व्यक्तित्व से है। यदि हम पाक कुरान शरीफ की अन्य आयतों को भी पढ़ें और समझे जैसे 7:46, 33:53 आदि यहां पर स्पष्ट जाहीर है कि हिजाब के कई आयाम हैं, इसका महिलाओं के पहनावे से कोई लेना-देना नहीं है। साथ ही करुणा व सहनशीलता पाक कुरान शरीफ की महत्वपूर्ण शिक्षाएं हैं। फिर पूरे इस्लाम को हिजाब के मुद्दों तक सीमित रखना इन सब महत्वपूर्ण बातों की तौहीन होगी।

इसी सन्दर्भ में जब हम महिला के लिबास को ‘मोडेस्टी’ के पैमाने पर लेकर आते हैं, तो जैसे एक कार को चलने के लिए सभी टायरों के सही संतुलन की आवश्यकता होती है, इसी तरह यह मोडेस्टी की बात भी केवल महिलाओं के कपड़े पोशाक से अकेले नहीं आ सकती है। समाज के सभी वर्गों से सही सहयोग, सकारात्मक सोच और सुधार इसमें आवश्यक हैं।

निस्संदेह ‘चॉइस’ (विकल्प) का मुद्दा महत्वपूर्ण है, कि कोई महिला या पुरुष क्या पहने या क्या ना पहने। विकल्प के इस विचार को एक बड़े संदर्भ में समझना होगा कि कोई भी पुरुष या महिला द्वारा पहनने के लिए लिया गया निर्णय खुद की इच्छा से लिया जा रहा है या कुछ परिस्थितियों के कारण लिया गया है या किसी दूसरे की ओर से प्रतिक्रियाशील पहचान की भावना से लिया जा रहा है, आदि जैसे कई पहलुओं पर ध्यान देना होगा।

कुछ मुस्लिम देश जिन्होंने हिजाब प्रतिबंधित किया है या प्रतिबंधित नहीं किया है, का उदाहरण देना गलत है , क्योंकि राष्ट्रीय हित का विचार प्रत्येक देश के लिए अलग अलग है। इसके अलावा आधुनिकता के विचार को कभी भी कपड़ों से परिभाषित नहीं किया जाता है, यह अच्छे विचारों और सुधार से आता है।

महिलाओं से संबंधित मुद्दों का जेंडर व लिंग के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाना चाहिए। यहाँ एक व्यापक विश्लेषण की आवश्यकता है कि क्या हिजाब या कोई भी पोशाक पारिवारिक परंपराओं, पुरुष वर्चस्व, पितृसत्ता या सामाजिक परिस्थितियों के आग्रह का परिणाम है।

इसी के साथ महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और उनके अधिकारों और स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के औचित्य के लिए पवित्र कुरान के संदेश का दुरुपयोग या गलत मायने बताने के मुद्दा को भी समझना चाहिए। इसी तरह, यह तर्क दिया जाता है कि यह महिला सशक्तिकरण के मुद्दे का उपयोग करके पूरे समुदाय को हाशिए पर डालने का प्रयास है।

थोड़ी हटकर बात करें, तो विभिन्न देशों के फैशन शो में व अंतराष्ट्रीय ब्रांड्स में हिजाब व स्कॉर्फ देखने को मिल सकता है। कई महिलाएं लड़कियां इसे पहनती हैं, कई नहीं। साथ ही वैश्वीकरण ने अरब दुनिया के अनुसार मुस्लिम कपड़ों का मानकीकरण (Standardization) भी किया। यही कारण है कि मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर चर्चा को सिर्फ हिजाब तक सीमित नहीं किया जा सकता है।

मुस्लिम महिलाओं व लड़कियों के मुद्दे आज की दुनिया में विविध हैं। किसी भी अन्य महिला की तरह मुस्लिम महिलाओं व लड़कियों के सामने अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जैसे तकनीकी प्रगति के अनुकूल होना, शिक्षा में वृद्धि, नौकरी, स्किल डेवलपमेंट, अच्छा स्वास्थ्य, घर पर मुद्रास्फीति का प्रभाव आदि। समाज के सभी वर्गों की ओर से उन्हें संबोधित करने का प्रयास होना चाहिए।

संस्थानों को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो व्यक्तियों को सर्वोत्तम परिणाम उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहन दें। समावेश के समग्र दृष्टिकोण के माध्यम से महिलाओं को सर्वोत्तम शैक्षिक और अन्य विकास के अवसर सुनिश्चित करना आवश्यक है। यह विविधता और प्रगति की ओर बढ़ने का कारक होना चाहिए।

इन सभी तथ्यों के साथ साथ भारतीय संविधान के अनुसार सरकार व समाज का दायित्व बनता है कि किसी को भी उसकी इच्छा के खिलाफ कुछ भी करने के लिए मजबूर ना किया जाना चाहिए जब तक कि उसके उस कृत्य से किसी दूसरे को नुक्सान ना हो।

कपड़ों में लड़का या लड़की क्या पहनना चाहता है ये उनका व्यक्तिगत मत है, इस पर सरकार और समाज को जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए ना ही लागू करने में और ना ही बैन करने में।

कर्नाटक सरकार द्वारा हिजाब पर जबरदस्ती प्रतिबंध लगाना अपने आप में मुस्लिम महिलाओं के साथ धक्का शाहाई है, जब जब ऐसी जबरदस्ती की जाती है तब तब लोग सड़कों पर निकलते हैं और इस से ना केवल बच्चों की शिक्षा का नुकसान होता है बल्कि अनेकों बार सरकारी संपति का भी नुकसान होता है।

इसलिए सरकार को ऐसे जबरदस्ती किसी भी समुदाय के पहनावे पर प्रतिबंध या अनुमति नहीं देनी चाहिए।

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राजेश ओ.पी.सिंह

“पौ फटने पर गोधूलि तक,

महिला करती श्रम,

पुरुष उसकी मेहनत पर जीता है, मुफ्तखोर,

क्या इन निकम्मों को मनुष्य कहा जाए” 

( सावित्री बाई फुले की ” क्या उन्हे मनुष्य कहा जाए” नामक कविता से)

सावित्री बाई फुले का जन्म आज ही के दिन (3 जनवरी 1831) में महाराष्ट्र में हुआ था,उनका जन्म उस समय हुआ जब भारत में सभी औरतों के लिए बड़े कड़े नियम थे और उस दौर में बाल विवाह ,सती प्रथा, बालिका भ्रूण हत्या आदि कुरीतियां समाज में उपस्थित थीं। इन सभी में विधवा महिलाओं को स्थिति सबसे नाजुक थी, क्यूंकि बाल विवाह के कारण बहुत बार ऐसा होता था कि जब लड़की 2-3 वर्ष की होती तभी उसके पति का देहांत हो जाता और वो फिर तभी से विधवा हो जाती और सारी उम्र विधवा के रूप में बीताती, विधवाओं को समाज में कोई सम्मान से नहीं देखता था, बेवसी में उनके परिवार वाले ही उन बच्चियों का नाजायज फायदा उठाते, अनेकों बार तो गर्भ पति विधवाओं को आत्महत्या करनी पड़ती या उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया जाता। 

जन्म से ही बच्चियों को घर के कार्यों में सलांगित करना शुरू कर दिया जाता था और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार बंद थे और ये माना जाता था कि महिलाओं को पढ़ना लिखना नहीं चाहिए क्योंकि इनका कार्य सेवा करना है इसलिए इनके लिए पढ़ना लिखना अपराध माना गया ।  

इसी दौर में जब सावित्री बाई फूले का जन्म हुआ तो वो भी इस से अछूती ना रह पाई और मात्र 9 वर्ष की बाल आयु में ही उनका विवाह ज्योतिबा फूले ( जो कि बाद में अपने कठिन प्रयासों और मेहनत के बल पर अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिल कर महान समाज सुधारक के रूप में सामने आए) से कर दिया गया। और जैसे कि यूनेस्को आज भी मानता है कि महिला के विकास में सबसे ज्यादा अवरोधक उसकी कम उम्र में शादी करने से पैदा होता है, जिससे उसका ना केवल शारीरिक बल्कि मानसिक विकास भी नहीं हो पाता , परन्तु सावित्री बाई फूले के जीवन में कुछ अलग ही होना था, उन्हें ज्योतिबा सरीखा पति मिला जो कि खुद भी पढ़ाई कर रहे थे और समाज की बुराइयों को देख और समझ कर उन्हे दूर करने के अपने प्रयास में लगे हुए थे।

ज्योतिबा फुले ने देखा कि महिला शिक्षा ना होने की वजह से समाज को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है, इसलिए महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने प्रयत्न करने शुरू किए जो कि उस समय में बहुत ही चुनौती का कार्य था, परन्तु ज्योतिबा फूले पीछे हटने वालों में से नहीं थे इस सिलसिले में उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले को पढ़ाने लिखाने का सोचा और प्रतिदिन उन्हें सीखाना शुरू किया, बहुत कम समय में ही सावित्री बाई फूले पढ़ना लिखना सीख गई तो ज्योतिबा ने उन्हें अन्य लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया।

1848 में फूले दंपति ने भिड़े वाडा, पुणे में लड़कियों के लिए भारत में प्रथम कन्या स्कूल खोला (इससे पहले केवल अंग्रेज़ों द्वारा संचालित स्कूल ही थे) और स्कूल में लड़कियों को शिक्षा देने का कार्य शुरू किया और बहुत कम समय में इनके स्कूल में वहां के लड़कों के सरकारी स्कूल की संख्या से भी ज्यादा लड़कियां पढ़ने के लिए आने लगी, और ये फूले दंपति के लिए अतिउत्साह उत्पन्न करने वाला क्षण था, इसी से प्रेरणा लेकर बहुत कम समय में फुले दंपति ने स्कूलों की संख्या बढ़ाना शुरू किया और 1852 आते आते इनके स्कूलों की संख्या 18 हो गई और इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने इन्हे सम्मान प्रदान किए। इसके अलावा इन्होने गरीब बच्चों के लिए हॉस्टल भी खोले।

परंतु सावित्री बाई फुले का एक शिक्षक के रूप में सफर बहुत कठिनाइयों भरा रहा, जब उन्होंने स्कूल में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो तथाकथित समाज के ठेकेदारों ने इसका विरोध किया और इन्हे रोकने की हर संभव कोशिश करी परंतु ये जब नहीं रुकी तो ज्योतिबा के पिता को बोला कि महिला शिक्षा समाज के लिए अभिशाप है और ऐसा करने पर आगामी कई पीढ़ियां शोषण का शिकार रहती हैं, इस बात से डर कर ज्योतिबा के पिता ने फूले दंपति को रोकने कि कोशिश की परन्तु जब वो नहीं रोक पाए तो उन्होंने धमकी दी कि या तो घर छोड़ दो या ये पढ़ाने वाला कार्य, तो फूले दंपति ने घर छोड़ना स्वीकार किया परन्तु अपने लक्ष्य के आगे नहीं झुके।

इसके आलावा जब सावित्री बाई फूले स्कूल में जाती थी तो रास्ते में शरारती तत्व उन्हें परेशान करते थे उन पर पत्थर फेंकते यहां तक कि गोबर भी फेंकते थे जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते थे, परंतु सामने से उन शरारती तत्वों से यही कहती कि ” तुम्हारे ये प्रयास मुझे ज्यादा मजबूत करते हैं ,परमात्मा तुम्हारा भला करे” । इस वजह से सावित्री बाई को दो दो साड़ियां साथ लेके जाना पड़ता था ,एक वो पहन कर जाती थी और दूसरी साथ लेकर जाती थी, जिसे स्कूल में जाके पहनती थी क्यूंकि एक साड़ी रास्ते में शरारती तत्व गंदी कर देते थे।परंतु वो इन घटनाओं के बारे में घर पर ज्योतिबा को भी नहीं बताती थी फिर एक रोज़ ज्योतिबा को इस बार में पता चला तो उन्होंने अपने दो दोस्तों को सावित्री बाई के साथ जाने को कहा।

इन संघर्षों का सामना करते हुए समाज में परिवर्तन और नई चेतना लाने के लिए वो कविताएं भी लिखती थी,उनका पहला काव्य संग्रह ” काव्य फूले” नाम से 1854 में जब वो 23 वर्ष की थी तब आया, जैसे  उन्होंने अपनी एक कविता में महिला शिक्षा के बारे में लिखा है:- 

” स्वाभिमान से जीने हेतु, बेटियो पढ़ो लिखो खूब पढ़ो, 

पाठशाला रोज़ जाकर ,नित अपना ज्ञान बढ़ाओ

हर इंसान का सच्चा आभूषण शिक्षा है, 

हर स्त्री को शिक्षा का गहना पहनना है,

पाठशाला जाओ और ज्ञान लो”।

इन्होने शिक्षण पद्धति में भी सुधार करने के प्रयास किए , ज्यादा बच्चों को स्कूल की तरफ आकर्षित करने के लिए छात्रवृत्ति शुरू की। 

इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया गया वो ये था कि इन्होने विधवा महिलाओं के लिए अलग अलग जगहों पर केंद्र खोले जहां पर विधवा महिलाए रह सकती थी, पढ़ाई कर सकती थी और अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी। अर्थात समाज में महिलाओं से सम्बन्धित सभी कुरीतियों को ख़तम करने का हर संभव नए प्रयास किए गए।

1873 में अपने पति के साथ मिल कर “सत्यशोधक समाज” नामक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य लक्ष्य “सत्य चाहने वाले समाज के निर्माण” से था। इस संगठन का मूल सिद्धांत ‘ समानता की सिद्धांत ‘ था।

महिला सशक्तिकरण ,महिला शिक्षा और समाज में समानता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाली सावित्री बाई फूले का ऋण हम किसी भी प्रकार से चुका नहीं पाएंगे। उनके क्रांतिकारी और अहम योगदान के लिए ना केवल महिला वर्ग बल्कि पूरा भारत और विश्व उनका ऋणी रहेगा।

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By Srishti Sarraf 

“Education is the most powerful weapon which you can use to change the world.”

The comment of Nelson Mandela is and should be the real purpose of education. But the state of affairs at Indian educational institutions tells a different story. In India, caste continues to be a dominant narrative at educational institutions and caste discrimination runs rampant, thus interfering with the conducive atmosphere needed for the pursuit of education. 

The gravity of this matter very recently came to light when the news of the PhD student Deepa Mohanan, made headlines. She is a Dalit student from Kottayam’s Mahatma Gandhi University, who resorted to a 11-day hunger strike to get heard against the discrimination that she faced, both at an individual and institutional level, for over a decade. Her fight did yield results and the Director of the Institute who discriminated against her, was removed. 

This 36-year-old scientist mustered a lot of courage to open up against the caste-based discrimination that she faced. She revealed that her struggle is a decade long as she has been protesting against the concerned authorities since 2011, when she had first joined the course. However her problems worsened after she joined the PhD course at the same institution. She says that she was denied access to resources needed to complete her PhD and that the institution made her do everything but actual research. She also says that she often faced verbal abuse and the Director himself made casteist remarks several times. She even made allegations of sexual harassment. Her demand was for a change in her research guide, and the removal of Nandakumar Kalarikkal, the director of the International and Inter-University Centre for Nanoscience and Nanotechnology (IIUCNN), from the institute.  

It all started in 2011, when according to Deepa Mohanan, Nandakumar Kalarikkal, her professor at the institute left no stone unturned to create hurdles for Mohanan in pursuing her doctorate. From the very beginning, she decided to speak up for her rights but despite complaints to the police and the university administration, her harasser was not held accountable. When all her efforts failed even six years after her initial complaint was found faithful, Mohanan went on an indefinite hunger strike on 29 November 2021 seeking Kalarikkal’s expulsion from the institute. More particularly, in an open letter that she posted on Facebook on 31 October 2021, Mohanan wrote: “I cannot move back from the protest without fighting for justice. I should fight for my people. I should win here for many who lost.”

Notably, this isn’t the first case of this sort. For instance, a few years back, Rohit Vermula suicide case was in light that also relates to the discrimination of a lower caste Dalit PhD student at university, who was left with no option but to take the harsh step to commit suicide. According to sources his suicide note mentioned his depression as he wrote “My birth is a fatal accident.” Further, there have been other reported instances when students from oppressed caste have chosen to die by suicide when the prospects of justice appear dim to them such as Anil MeenaBalmukund BhartiSenthil KumarRohith VemulaJ MuthukrishnanOmkar Baridabad, and Payal Tadvi

Hopefully, the apex higher education regulator – the University Grant Commission upon receiving several reports of the suffering of students and faculty members in some of the leading institutions of the country and witnessing the surge in caste-based discrimination has urged the universities and colleges to prevent such incidents. In this regard, UGC in its letter dated 14th September 2020 instructed the institutions to ensure that the officials and faculty members must avoid any act of discrimination against SC/ ST/ OBC students on grounds of their social origin.

Reports suggest that India’s 200 million Dalits, who are on the lowest rung of an ancient caste hierarchy, still struggle to access education and jobs six decades after India banned caste-based discrimination and introduced minimum quotas to boost their representation. Thus, the government has to develop policies aimed at the social and economic advancement of the Dalit population. Even though the Constitution of India, the supreme law of the country, guarantees equal entitlement over fundamental rights to everyone and to materialize this there exist specific legislations, but the ground reality leaves much to be desired. India’s caste system is perhaps the world’s longest surviving social hierarchy. 

Traditional scholarship has described this more than 2,000-year-old system within the context of the four principal varnas, or large caste categories. In order of precedence, these are the Brahmins (priests and teachers), the Kshatriyas (rulers and soldiers), the Vaisyas (merchants and traders), and the Shudras (labourers and artisans). A fifth category falls outside the varna system and consists of those known as “untouchables” or Dalits; they are often assigned tasks too ritually polluting to merit inclusion within the ancient Varna system. All ancient authorities concurred that caste was assigned to a person at birth and could not be changed; with each caste was associated a profession, and all castes were arranged in a hierarchy. 

Here one must note that the caste system has its repercussions on access to education, high drop-out and lower literacy rates among lower-caste populations. But they have rather simplistically been characterized as the natural consequences of poverty and underdevelopment. Mohanan’s case is significant as her resistance has made her one of few Dalits able to achieve some justice in a system rife with casteism. Moreover, this young lady has turned out to be a source of true inspiration for those Dalit students who dream of pursuing higher education. However, the other side of the coin says that though now hailed as a success story, Mohanan’s struggle is a telling example of how the spirit of the constitutional promises is diluted. Thus, at present, it is important to ensure adherence to the Constitution that to not just as a mere legal exercise but in substance and spirit.

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राजेश ओ.पी.सिंह

प्रत्येक देश में किसी भी मौजूदा नीति में सुधार या उसके स्थान पर नई नीति तभी लाई जाती है जब संभवतः मौजूदा नीति समकालीन समय में अपने लक्ष्यों को प्राप्त करती प्रतीत नहीं होती। इसी सिलसिले में भारत की केंद्र सरकार ने 34 वर्षों बाद 2020 में नई शिक्षा नीति को लागू किया है। 

ये माना जा रहा है कि 1986 की शिक्षा नीति से आज के समय में उत्पादकता और शिक्षा के स्तर में निरन्तर गिरावट देखने को मिल रही है, इसलिए केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार करने के लिए  टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में बनी विद्वानों की समिति की कड़ी मेहनत और लबी जदोजहद के बाद नई शिक्षा नीति 2020 का प्रारूप तैयार किया गया और इसे अथक प्रयासों से अमली जामा पहनाया गया है ।

जब भी कोई नई नीति लागू होती है तो सरकार व सरकार के अधिकारी और समर्थक उसके पक्ष में बोलते हैं और ऐसे दर्शाते है जैसे कि नई नीति से सब कुछ बदल जाएगा और सारी कमियां दूर हो जाएंगी, ऐसा ही नई शिक्षा नीति 2020 को लेकर देखने को मिल रहा है। सरकार इसके अनगिनत फायदे गिनवा रही है जैसे की प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी मातृ भाषा में पढ़ने का अधिकार इस शिक्षा नीति में है, आप अपनी मनपसंद के विषय पढ़ सकते हैं। 

इसके साथ साथ सरकार ने सबसे महत्वपूर्ण बदलाव ये किया है कि कक्षा 12 के बाद यदि कोई बच्चा किसी कारण से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाता है तो उसे डिग्री से हाथ नहीं धोना पड़ेगा, जैसे यदि एक वर्ष बाद कोई पढ़ाई छोड़ दे तो उसे सर्टिफिकेट कोर्स माना जाएगा, दो वर्षो के बाद छोड़ दे तो उसे डिप्लोमा कोर्स माना जाएगा और यदि तीन वर्ष पूर्ण कर लें तो उसे डिग्री कोर्स माना जाएगा। इस प्रकार अपनी मर्ज़ी या अपनी परिस्थितियों के हिसाब से विद्यार्थी शिक्षा व्यवस्था के अंदर बाहर जा सकते है। 

सरकार ऐसे अनेकों सुधार और फायदे गिनवा रही है, और हो सकता है कि आगामी समय में इससे भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार देखने को मिले परंतु इसमें सरकार ने एक बड़ा फेरबदल मास्टर डिग्री के बाद होने वाली मास्टर ऑफ फिलॉस्फी (एम.फिल.) की डिग्री को खत्म करके किया है, नई शिक्षा नीति 2020 के मुताबिक अब मास्टर डिग्री के बाद सीधा पीएच. डी. कर सकेंगे परन्तु इस परिवर्तन से सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों में पढ़ने वाली छात्राओं को हुआ है और इनमें भी सबसे ज्यादा ग्रामीण परिप्रेक्ष्य की छात्राओं को।

 जैसे मास्टर डिग्री के समय प्रत्येक लड़की की उम्र 22-23 वर्ष होती है और जब एम.फिल. कोर्स होता था तो अधिकतर लड़कियां जो शोध करने कि इच्छुक हुआ करती थी उनका दाखिला इस कोर्स में हो जाता था और उन्हें शिक्षण संस्थान में 2 वर्ष और पढ़ने को मिल जाते थे , इस से होता ये था कि एक तो वो परिपक्वता की ओर अग्रसर हो जाती थी, दूसरा एम.फिल करने से उनकी शोध सम्बन्धी जानकारी और ज्ञान में वृद्धि हो जाती थी, और आगे पीएच.डी. करने कि रुचि भी बढ़ जाती थी, तीसरा सबसे बड़ा फायदा ये होता था कि इस दौरान अधिकतर छात्राएं नेट (जो कि कॉलेज में प्रोफेसर बनने के लिए आवश्यक शर्त है) की परीक्षा भी पास कर लेती थी, जिसमे जेआरएफ करने वाली छात्राओं को यूजीसी द्वारा स्कॉलरशिप भी दी जाती है जिससे उनका अपने परिवार से आर्थिक रूप से निर्भरता खत्म हो जाती है।

 एम.फिल करने से छात्राओं में आत्मविश्वास भी पैदा हो जाता था और नौकरी के लिए भी समय मिल जाता था इसके साथ साथ जब बच्ची शिक्षण संस्थान में पंजीकृत होती है तो घर वाले और रिश्तेदार शादी के लिए दबाव भी नहीं बना पाते और जब तक एम.फिल खत्म होती है तब तक लड़की की उम्र भी 25 वर्ष के आसपास हो जाती है और तब शादी के लिए नौकरी लगे हुए लड़के मिलने की सम्भावना ज्यादा हो जाती है क्योंकि लड़की के भी जल्दी ही नौकरी लगने की संभावना बन जाती है। 

परन्तु अब सरकार द्वारा इस कोर्स को खत्म कर दिया गया है और इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ है कि जो छात्राएं शोध करना चाहती थी वो शायद अब नहीं कर पाएंगी, क्यूंकि मास्टर डिग्री के तुरंत बाद पीएच.डी. करना बहुत मुश्किल काम है, सबसे पहले तो उन्हे इस बारे में कोई ज्यादा जानकारी या समझ ही नहीं है। जैसे कि पीएच.डी. में प्रवेश के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है शोध प्रस्ताव का निर्माण करना और मास्टर डिग्री के बाद लगभग किसी को भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं होती कि शोध प्रस्ताव का निर्माण कैसे करना है?

इसके साथ ही पीएच.डी. में दाखिला लेने के लिए नेट की परीक्षा उत्तीर्ण करना सबसे आधारभूत शर्त माना गया है, हम देखते हैं कि नेट की परीक्षा में प्रतिवर्ष केवल 3 प्रतिशत के आसपास बच्चे ही पास हो पाते हैं और उनमें लड़कियों को संख्या बहुत कम है और मास्टर डिग्री के तुरन्त बाद नेट पास करने वालों की संख्या तो इस से भी कम है इसलिए अब ना तो लड़कियां मास्टर डिग्री के साथ साथ नेट की परीक्षा पास कर पाएंगी और ना हो वो पीएच.डी. में दाखिला ले पाएंगी।

इसका नुकसान ये होएगा कि उन्हें घर पर बैठना होगा और घर पर बैठने से घर वाले, रिश्तेदार और समाज के दबाव में शादी होने कि संभावना ज्यादा है, और शादी के लिए अच्छा लड़का मिलने की सम्भावना बहुत कम है। 

और मास्टर डिग्री खत्म करने के वक्त लड़की की उम्र महज 22-23 वर्ष ही है तो इस उम्र में शादी होने से लड़कियों को शारीरिक रूप से काफी नुकसान होते हैं जैसे भारत में औसतन शादी के एक वर्ष बाद लड़की मां बन जाती है, तो इस प्रकार 23-24 वर्ष की उम्र में जब कोई लड़की मां बनेगी तो उसपर अनेकों जिम्मेवारियां आ जाएंगी और उसकी पढ़ाई लगभग छूट ही जाएगी । 

इससे लड़कियों और विशेषकर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य वाली लड़कियों को सबसे ज्यादा नुकसान होएगा।

लड़कियों का शोध करने का, पढ़ लिख कर नौकरी करने का, प्रोफेसर बनने का सपना लगभग टूट ही गया है।

इसलिए सरकार को एक बार फिर से इस परिप्रेक्ष्य में देखना और सोच विचार करना चाहिए ताकि छात्राओं को शोध के क्षेत्र से बाहर ना जाना पड़े और इस क्षेत्र में लैंगिक विभेद ना पैदा हो सके। 

 और यदि इस गंभीर समस्या पर पुनर्विचार नहीं किया जाता है तो लड़कियों को निश्चित रूप से एक बार फिर रसोई की ओर धकेले जाने और घर की चार दिवारी में कैद करने की पूरी पूरी कोशिश और सम्भावना है।

मुख्य शब्द : नई शिक्षा नीति  छात्राएं  शोध  नेट  जेआरएफ  एम.फिल पीएच.डी.  उम्र  शादी बच्चे 

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The Afghan War

by Guest Author

Pooja Bhattacharjee

Formed in 1994, the Taliban were made up of former Afghan resistance fighters, known collectively as mujahedeen, who fought the invading Soviet forces in the 1980s. They aimed to impose their interpretation of Islamic law on the country and remove any foreign influence. After the Taliban captured Kabul in 1996, the Sunni Islamist organization put in place strict rules where women had to wear head-to-toe coverings, weren’t allowed to study or work, and were forbidden from traveling alone. TV, music, and non-Islamic holidays were also banned.  Though the Taliban remained on the other side of the fence during the US presence in Afghanistan, they quickly invaded all the major Afghan cities at the offset of the US military. 

It’s been over a month since the Taliban seized control of Afghanistan. With half a million people displaced since the withdrawal of the coalition military, millions of people fleeing the country at the onset of the Taliban rule, a collapsing economy and raging unemployment, a possible internet shut down, and major humanitarian crisis at the hands of the interim government composed of terrorists and extremists, stability in Afghanistan is still a far-fetched dream. 

An Uncertain Future For Afghan Women 

Women and children are increasingly bearing the brunt of the violence and continue to be at risk of targeted attacks. Afghan women makeup around half of all civilian casualties. Afghanistan has been the deadliest place for children for the past six years. The Taliban gets to control what women wear, how much they can study, put restrictions on women’s place of work and decide when women will get married. Women in Afghanistan face rising levels of domestic violence, abuse, and exploitation. Women fear to even leave their home under Taliban rule and are barred from leaving home without a male relative. 

Taliban spokesman Suhail Shaheen says the group will respect the rights of women and minorities ‘as per Afghan norms and Islamic values’.  Taliban officials have said women will be able to study and work in accordance with sharia law and local cultural traditions, but strict dress rules will apply. However, a few days ago, they said they would open schools for high school aged boys and male teachers but made no mention of the country’s millions of women educators and girl pupils. Many are questioning how much they would respect women’s rights after this incident.

Education

Over the past 20 years, progress has been made on the number of girls receiving an education in Afghanistan, but over the past few months attacks on schools and villages dramatically increased while international support has slowly withdrawn. It is feared that 1 million children will miss out on education. In July, a group of Afghan schoolgirls shared their fears with an online publication. “As the fighting increases day by day, it’s a concern that we’ll go back in time,” one 15 year old said. 

Amidst the conservative Taliban rule and restrictions on women’s education, Higher Education Minister Abdul Baqi Haqqani, in the Taliban interim government ordered gender segregation  and mandatory hijabs for women in colleges and universities. The plan mentions bisecting classrooms, cubicles with curtains fitted with jaalis, and separate shifts for women and men in schools and universities. For now, most universities have proposed that women be allowed to attend classes from behind curtains or cubicles, or transferred to institutes in provinces they come from. 

Nobel Peace Prize winner Malala Yousafzai, who was shot by a Taliban gunman in Pakistan for advocating for girl’s education, pleaded with the world leaders to not compromise on the protection of women’s rights and the protection of human dignity. In a panel on girl’s education in Afghanistan on the sidelines of the United Nations General Assembly, Malala emphasized on ensuring the rights of Afghan women are protected, including the right to education. 

Strict Dress Restrictions for Women

Recently, women holding a pro-Taliban rally in Kabul were seen saying Afghan women wearing make-up and in modern clothes “do not represent the Muslim Afghan woman” and “we don’t want women’s rights that are foreign and at odds with sharia” – referring to the strict version of Islamic law supported by the Taliban. These women were seen in black dresses that cover the entire body from top of the head to the ground. 

This was met with a lot of criticism from Afghan women globally, including Mursal Sayas, a master trainer at Afghanistan Human Rights Commission who responded to this incident with, “The fashion statement behind these clothes that cover even the women’s eyes is coercion, bullying and non-recognition of women’s choices and rights.” This was a mutual feeling with a lot of people. 

Afghan women have started a powerful online campaign to protest against the Taliban’s strict new dress code for female students and the burqa worn by women at the pro-Taliban rally. Using hashtags like #DoNotTouchMyClothes and #AfghanistanCulture, many are sharing pictures of their colourful traditional dresses. Women are also protesting about linking chadari or burqa to Afghan women. “Chadari came to Afghanistan during wars with Soviets at the hands of extremists. The main dress of Afghan women is a colorful long gown, with small mirrors and delicate thread work,” Attia Mehraban, a women’s rights activist in Afghanistan said. 

Women Afghan students wore all black during a pro-Taliban rally at a university in Kabul. 

Though there is no indication that the women attending the pro-Taliban rally were forced to wear that clothing nor has the Taliban said that this will become an enforced standard yet, apart from mandatory burqas for women in universities, but it’s just a matter of time till they control this aspect of women’s lives. Images of women on billboards and in shops around Kabul were covered up or vandalised within days of Taliban’s return to the capital. 

In Workplace

The Taliban had promised that its new era will be more moderate, but it has refused to guarantee women’s rights will not be stripped back and many have already faced violence. Last month, Taliban spokesperson Zabiullah Mujahid said at a news conference that women should not go to work for their own safety. He added that the Taliban ‘keep changing and are not trained to respect women.’ A senior figure in the Taliban, Waheedullah Hashimi said that Afghan women and men should not be allowed to work together as Sharia law doesn’t allow it. If formally implemented, it would bar women from employment in government offices, banks, media companies, etc. 

At the onset of Taliban rule last month, girls in Kandahar were asked to go home and their male relatives were asked to fill in their positions in the bank. Many other women have been stripped off of their positions at work and their male relatives have been asked to fill in their positions. Taliban officials have held that women will be allowed to work only when proper segregation can be implemented. Many Afghan women fear that they would never find meaningful employment. 

Taliban has also shut down the former government’s Ministry of Women’s Affairs and replaced it with one which enforces religious doctrine. Although still marginalized, Afghan women have fought for and gained basic rights in the past 20 years, becoming lawmakers, judges, pilots, though mostly limited to large cities. But since returning to power, the Taliban have shown no inclination to honor those rights.

Activist Pashtana Durrani warns people to be wary of the promises made by Taliban;

“You have to understand that what the Taliban say and what they are putting in practice are two different things, they are looking for legitimacy from all these different countries, to be accepted as the legitimate government of Afghanistan, but then at the same time, what are they doing in practice?” Ms. Durrani also points out that when the Taliban talk about women’s rights, they talk about them in vague terms: do they mean mobility rights, socialising rights, political rights, their representative rights and/or voting rights? It is not clear whether they mean all or only some of those rights, she says.

Grey clouds cover the Afghanistan sky, the darkness and gloominess represents the country’s future under Taliban rule. Many are worried that their hopes and dreams will be shattered by the Taliban, many have been stripped off their basic rights to freedom & education, the most affected remain the women. They have been banned from working in many major sectors by the Taliban, they cannot be a member of the cabinet and uncertainty hovers over their future and their right to livelihood. There is a state of anxiousness and Afghan women and girls must wait to see what pans out in the course of time.         

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Authors: Mitali Nikore, Khyati Bhatnagar, Priyal Mundhra

Research assistance: Ishita Upadhyay, Girish Sharma, Shruti Jha

India’s growing economy needs 103 million skilled workers between 2017-2022. Yet, over 100 million Indian youth (15-29 years) are not in education, employment or training (NEET), of which around 88.5 million are young women. The proportion of working-age women receiving any form of vocational training over the past decade has been increasing from 6.8% in 2011-12 to 6.9% in 2018-19, vs. an increase from 14.6% to 15.7% for men.

Furthermore, there is a concentration of women trainees in non-engineering, labour-intensive sectors and job roles. Under the flagship Prime Minister Kaushal Vikas Yojana (PMKVY) for short-term skilling, although women comprised 49.9% of enrolled candidates over 2016-2020, they remained concentrated in traditional, “feminised” sectors such as beauty, apparel and healthcare, and almost entirely excluded from high technology or more mechanised sectors. Between 2014-19, women comprised 17% of enrolment at Industrial Training Institutes (ITI). Women formed only 4.3% of enrollments in engineering trades vs 54.7% in non- engineering trades.

Source: NSDC Analysis, June 2020

In this context, prolonged closures of education and skilling facilities during the COVID-19 pandemic are creating new barriers, especially for young women trying to enter the labour force. Between September 2020 to May 2021, Nikore Associates undertook consultations with over 60 stakeholders belonging to community-based organisations (CBOs), academic institutions, government agencies, women-led self-help groups (SHGs), and corporates to understand these barriers.

1. Gender-based digital divide: During COVID-19, several CBOs switched to online and Whatsapp-based skill training modules. However, in 2020, 25% of India’s adult female population owned a smartphone vs. 41% of men. Consultations showed that owing to lower ownership of smartphones, unfamiliarity with phone features, high data costs, and lower priority being accorded to women’s skill training, several women and adolescent girls dropped out of training. In one example of this, a Mumbai based NGO shared that large family sizes necessitated phone-sharing. Coupled with financial constraints which limited the purchase of internet packages, women’s enrolment in their online skill training courses had fallen.

2. Unpaid work: Indian women were already spending an average of 5 hours per day on unpaid care work, vs. 30 minutes spent by men pre-COVID-19. Nearly 45% of women’s unpaid work is centered around childcare, and the unavailability of creche facilities at skill centers deters women with caregiving responsibilities from joining. Consultations across social groups revealed that the presence of male relatives and children at home due to closure of workplaces and schools led to an increase in care work. For instance, an SHG mobiliser in Telangana shared that the women in her community were unable to attend trainings and SHG meetings owing to domestic work.

3. Commuting options and mobility restrictions: Even before COVID-19, 28.3% of women enrolled in ITIs cited difficulty in commuting as their reason for withdrawing from skill training. Lockdown measures disrupted public transport services, increased the risk of gendered violence in empty public spaces, and heightened mobility restrictions for women. For instance, a Manipur-based CBO shared that even after lockdowns eased and training centers re-opened, women were unable to re-join trainings as they did not have a means to commute.

4. Social norms. In a pre-COVID-19 survey, 58% of female trainees cited marriage, 21% cited family issues, and another 7.5% cited family perception of ITIs being more suited for males as major reasons dropping out of skill training programs. Consultations show that with COVID-19, families have become even more reluctant to allow young women to step out for training. For instance, a Delhi-based CBO conducting training for women to take up cab-driving saw much higher resistance from families post COVID-19.

5. Wage gaps and low likelihood of employment post training: Even after training, women’s likelihood of obtaining a job was lower than men. About 46.9% of women who received formal vocational training did not enter the labour force, vs. 12.7% of men (NSSO 2019). An analysis of data from 64 ITIs shows that only 25.6% of female trainees received job offers in 2018-19. In a survey of employers, 50% of MSMEs and 32% of large companies expressed a reluctance to employ women owing to the need to ensuring their security, risks with involving them in heavy manual labour, and their interest in working in closer proximity to their homes. Women also suffer gendered wage gaps. Between 1993-2018, the average wages for female casual workers in urban settings stood at ~63% of the male wage. Consultations showed that during COVID-19, these gender-biases could worsen, especially across small businesses owing to repeated macroeconomic shocks and working capital constraints.

The Government of India (GOI) has recognized women as a priority group under the Skill India Mission. Further, the GOI’s recent announcement to conduct a tracer study to gauge the impact of PMKVY on female labour force participation is a much-needed intervention to understand the correlation between skill development and employability for women.

As the country moves on to a medium-term path of economic recovery post-COVID19, several additional measures can be considered by the GOI to encourage government and private training providers to undertake gender-inclusive skilling interventions.

The GOI could formulate an incentives-based approach with gender targets for all courses under its National Skill Qualification Framework (NSQF). Reward mechanisms can be created such that training partners become eligible for additional financial support if new modules are devised for women’s training, or if there is an increase in enrolment and placement of female candidates, especially in non-traditional trades.

A composite national and state level ranking of skilling institutes should be devised to assess gender mainstreaming efforts, including increasing awareness, recruiting female faculty and offering counselling services for female candidates and potential employers.

There is also an urgent need to create gender sensitive infrastructure at skill training institutions, with procurement standards of private training partners under government schemes mandating separate washrooms, strict security, balanced gender ratio of trainers and the provision of safe transport. Gender sensitive infrastructure should be standardized across all government and private skilling institutes.

A host of long-term structural barriers, such as occupational segregation, the income effect of rising household-incomes, and increased mechanization, which when combined with increased unpaid work, growing gender disparities in education, and heightened mobility restrictions due to the pandemic, have intensified the challenges of bringing women back to work. Thus, bridging the gender gaps in skill training and making women ready for a digitized, technology-driven post-COVID-19 workplace, should be a priority for GOI.

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By Dheeraj Diwakar

“I measure the progress of a community by the degree of progress which the women have achieved.”

  • Dr. B.R. Ambedkar

Introduction

In 2004, Columbia University released a list of the world’s best top 100 scholars, and the list was topped by Dr. B.R. Ambedkar. He made enormous efforts to make sure that society follows a path of Liberty, Equality, and Fraternity. The same can be witnessed from his various writings and speeches.

The concept of caste is so deep-rooted in Indian society that whenever the name of Dr. Ambedkar comes up, the first image of him is that of a messiah of Dalits. But what a lot of people don’t know about Dr. Ambedkar is his fight for women’s empowerment and his pursuit of gender equality in all dimensions of national and private life. This short piece aims to highlight some of the main achievements and endeavours of Dr. Ambedkar for women’s equality in India 

Ambedkar And Women’s Rights In Pre-Independence Era

Dr. Ambedkar was aware of the miserable conditions of women. He believed that women are the worst sufferers of the oppressive, caste-based, and rigid hierarchical social system. His main effort was to liberate Indian women from various social and religious ties and provide access to necessities which they were deprived of i.e., Education and Inheritance rights. He regarded education as the only tool for the emancipation of women. On 20 July 1942, while addressing the second All India Depressed classes women’s conference he said, “I shall tell you a few things which I think you should bear in mind. Learn to be clean; keep free from all vices. Give education to your children. Instill ambition in them. Inculcate in their minds that they are destined to be great. Remove from them all inferiority complexes.

Ambedkar’s approach towards women was completely different from other social reformers i.e. Mahatma Gandhi, Jyotiba Phule, Ishwar Chandra Vidyasagar who tried to reform without questioning the social hierarchical order. 

In the early days of 1928, a women’s conference was established in Bombay with Ramabai (Ambedkar’s Wife) as its President. About 500 women participated in Kalram Temple’s entry Satyagraha at Nasik in 1930. The number swelled up to 3000 women participating in the historic Mahad Satyagraha. He believed that family planning measures for women should be taken. In 1942, while serving as a labor minister of the executive council of governor-general he introduced a Maternity Benefit Bill. The bill aimed to provide maternity leave to women workers. In his journals i.e. Mooknayak and Bahiskrit Bharat, he made sure that the issues related to women get an equal place in it. 

Hindu Code Bill

Hindu Code Bill is one of the most important initiatives made by Dr. Ambedkar to improve the miserable condition of women. Being the first Law Minister of independent India on February 24th, 1949, he took an initiative and introduced the draft of the Hindu Code Bill in the Constituent Assembly. The bill aimed to release women from various social bondages created by the Hindu social order. The proposed legislation seeks to provide women with the Right to property and other legal rights which were prohibited by the Manu law. The Bill aimed to put men and women in equal places in terms of legal status. He argued that the ideals enshrined in the Bill have their origins in the Indian Constitution which promotes equality. The Bill was first delayed by the parliamentarians and was later rejected leading to Ambedkar giving his resignation from the post of Law Minister. 

He introduced four Acts that were also incorporated in the Hindu Code Bill. The acts improved the conditions of women and strengthened their position. The list of Acts along with important provisions for women are as follows:

Hindu Marriage Act 1955: Section 5 of the Act increases the legal age of marriage for girls to 18 years. Section 17 of the Act provides punishment for bigamy. Provisions related to alimony and permanent maintenance have been provided in Section 25 of the act. 

Hindu Succession Act 1956: Section 8 of the Act empowers the widow to adopt Son or Daughter. Section 14 ensures that the property of women will be her absolute property. Further, section 15 of the act makes sure that there would be a uniform succession to the property of a Hindu Female who dies intestate. 

The Adoption and Maintenance Act 1956: Under Section 8 of this act, widows are empowered to adopt children. Earlier under Hindu law, they were not entitled to do so. Before this act came into force, daughters could not be adopted. Section 9 of the act makes it compulsory that the wife shall be consulted while carrying on any adoption. 

The Hindu Minority and Guardianship Act 1956: Section 6(a) ensures that in case of custody if the child has not completed the age of five then the custody lies with the mother. Under 6(b), if the child has been born out of an illegitimate relationship, then the first natural guardian would be mother and then father. The act also empowers the mother to change a guardian of a child who has been appointed by the father. 

Constitutional Provisions

Dr. Ambedkar worked as a Chairman of the Drafting Committee and is regarded as the Father of the Indian Constitution. In many of his speeches in the Constituent assembly, he debated for equal rights for women. His approach towards women’s rights played a significant role in ensuring that Women’s rights find a special place in the Indian Constitution. Some of the important constitutional provisions protecting women’s rights are,

Article 14: This article ensures equality for all citizens irrespective of Gender, Caste, Creed, Religion, and race. 

Article 15: This article prohibits discrimination on the grounds of Religion, Gender, Caste, Creed, and Race. 

Article 16: This article says that there shall be an equality of opportunity in Public Employment. 

Article 23: This article prohibits Human Trafficking and Bonded Labour. 

These were some important provisions related to women. Apart from them, many other articles protect the rights of women i.e. Article 39(a) and (d), Article 42, Article 51A(e), Article 243D(3), Article 243T(3), and Article 243T(4). 

Conclusion

Even in the 21st Century, the issue of gender inequality still finds its deep roots in Indian society. The condition was more critical in the pre-independence era and the early parts of post-independence. It was Dr. Ambedkar and some other handful of social reformers who came forward to lessen the plight of age-old sufferers i.e., Women. Interestingly, when the Hindu Code Bill was to be introduced by Ambedkar, numerous women opposed the Bill. The efforts made by Ambedkar with regards to Women’s equality haven’t been much recognized or if recognized get faded because of the title he carries i.e., Liberator of Dalits. 

Author: Dheeraj Diwakar

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Greetings,
Researchers from O.P. Jindal Global University and University of Baltimore are undertaking a nationwide study aimed at understanding the prevalence and incidence of Intimate Partner Violence among Indian women across all backgrounds.

This study is a large-scale exploratory survey that aims to understand the prevalence and incidence of intimate partner violence among urban and rural women in India across different relationship statuses (whether married or unmarried, dating or cohabiting), and among women across educational, economic, caste, religious, and regional backgrounds. This study will also help expand the limited literature on women’s IPV experiences across India as it includes new aspects such as cyber victimization and IPV during the COVID-19 pandemic.

If you identify as a woman, we kindly request you to fill in the following survey. Your response will help us create a comprehensive database and contribute to the existing literature on IPV.
https://umdsurvey.umd.edu/jfe/form/SV_5tjqKOQHOYmeLw9

To know more about this project, visit https://cwlsc.wordpress.com/research-project/ and follow us @ipv_COVID19 on Instagram.
Please share this message with your peers, friends and family as well. Thank you.

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By Rajesh Singh

कोरोना महामारी के चलते जब सारे शैक्षणिक संस्थान बन्द है तब शिक्षा का जो स्वरूप बदला है, वह ना तो हमारे देश के छात्रों और ना ही छात्राओं के लिए अच्छा है, क्योंकि इसमें ना तो परस्पर क्रिया है और ना ही सहभागिता। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) के अनुसार भारत में लॉकडाउन के कारण लगभग 32 करोड़ छात्र छात्राओं की पढ़ाई रुकी है, जिसमे लगभग 15.81 करोड़ केवल लड़कियां हैं।

कोरोना महामारी से शिक्षण संस्थान मुख्य रूप से स्कूलों के बंद होने से लड़कियों (खासकर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली) को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। अब जब स्कूल जाना नहीं तब उन पर घर के कार्यों का बोझ बढ़ा है I हालांकि पहले भी घर के कार्यों में वो अपना योगदान देती थी, परंतु पहले ये होता था कि सुबह स्कूल जाना है, वहां 6 घंटे रहना है, स्कूल से आकर स्कूल का कार्य करना है, इसमें उनका काफी वक्त लग जाता था जिसके चलते उन्हें घर के सारे कार्य नहीं करने पड़ते थे I परंतु अब सुबह से लेकर शाम तक घर का सारा कार्य उन्हें करना पड़ता है I घर में बड़े बुजुर्ग भी ये कहते हैं कि जब स्कूल नहीं जाना तो कम से कम घर के कार्य करने ही सीख जाओ। इसके साथ ही प्राथमिक स्कूल की बच्चियां जिन्होंने अभी स्कूल जाना शुरू किया था, अभी सीखना शुरू किया था,की तरफ किसी का कोई ध्यान नहीं जा रहा, उनका भविष्य अंधकार में धकेला जा रहा है I आमतौर पर जब कोई इंसान कुछ सीखना शुरू करता है तो उसे अभ्यास की ज़रूरत होती है, यदि कोई चीज़ सीखी हो और उसका अभ्यास ना किया जाए तो बहुत जल्दी वो चीज़ भूल भी जाते हैं और बच्चों जिन्होंने अभी अभी सीखना शुरू किया है उनके लिए सीखी हुई चीजों का अभ्यास करना ज्यादा महत्वपूर्ण हैI 

परंतु अब जब पिछले 15 महीनों से स्कूल बंद है तब कैसे छोटे बच्चे घर में अभ्यास करें? हो सकता है कि कुछ परिवार अपने बच्चों को प्रतिदिन कुछ पढ़ा कर अभ्यास करवा पाएं पंरतु लगभग 70 फीसदी परिवार ऐसे है जो दिहाड़ी मजदूरी करके अपना और परिवार का पेट पालते हैं, उनके पास इतना वक्त नहीं होता कि वो अपने बच्चों को पढ़ा पाए I इनमे से भी अधिकतर माता पिता खुद अनपढ़ है तो वो कैसे अपने बच्चों को कुछ सीखा पाएंगे और अगर बच्चा लड़की है तो उसपर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता I यदि ट्यूशन भी लगाना हो तो आम जन लड़कियों की बजाए लड़कों को ज्यादा तरजीह देते हैं। इसके साथ ही जो लड़कियां कक्षा 9 या 10 में पढ़ती थी उनकी शादियां हो रही है जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से बड़े बदलाव के दौर में जीना पड़ रहा है।

यूनेस्को की शिक्षा विभाग की सहायक महानिदेशक “स्टेफेनिया गियनिनी” ने पिछले वर्ष कहा था कि इस महामारी के कारण शैक्षणिक संस्थान बंद होना लड़कियों के लिए बीच मे ही पढ़ाई छोड़ने की चेतवानी है। इससे शिक्षा में लैंगिक अंतर जहां और बढ़ेगा वहीं विवाह की कानूनी उम्र से पहले ही लड़कियों की शादी की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

सरकार ने हालांकि शिक्षा बिल्कुल ना रुके इसके लिए ऑनलाइन शिक्षा शुरू की, परंतु भारत में पर्याप्त संख्या में ना तो ऑनलाइन शिक्षा के लिए यंत्र हैं और ना ही आम जन के पास इन्हें चलाने की कला। लोकनीति सीएसडीएस ने अपनी 2019 की रिपोर्ट में बताया कि ग्रामीण क्षेत्रो मे केवल 6 फीसदी परिवारों में और शहरी क्षेत्रों में 25 फीसदी परिवारों के पास कंप्यूटर है। और केवल एक तिहाई घरों में ही स्मार्ट फोन है, इसमें भी अधिकतर घरों में एक ही स्मार्टफोन है, जिसे पूरा परिवार प्रयोग करता है, और ये फोन घर के मुख्य व्यक्ति के पास रहता है, वो जब घर होता है तभी बच्चे उसे प्रयोग कर सकते हैं, और बच्चों में भी लड़कियों की बारी लड़कों के बाद में आती है। 

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय ने अपनी 2017-2018 की रिपोर्ट में कहा था कि भारत में केवल 24 फीसदी परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। अर्थात् 70 फीसदी परिवारों के पास ना तो कंप्यूटर है ना ही स्मार्टफोन और ना ही इंटरनेट और इसके साथ साथ घरों में ना तो पर्याप्त जगह है जहां पर बैठ कर शांति से बच्चे पढ़ सके और ना ही ऐसा माहौल जिसमे कुछ सीखा जा सके तो इस दौर में ऑनलाइन शिक्षा कैसे सम्भव है? सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये भी है कि ग्रामीण परिवेश में रहने वाले अधिकतर लोगों को सोशल मीडिया चलाना ही नहीं आता I दूसरा जो काम स्कूल द्वारा भेजा जाता है उसे बच्चे समझ ही नहीं पाते कि इसे करना कैसे है, उन्हें बताने वाला कोई नहीं है, और फोन जब शाम को घर आता है तब उसकी बैट्री लगभग खत्म होने को होती है और ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली भी 24 घंटे उपलब्ध नहीं होती I इस प्रकार ऐसे अनेकों कारण है जिनकी वजह से ग्रामीण बच्चों और खासकर लड़कियों की पढ़ाई छूट रही है। अब उन्हें वापिस मुख्यधारा में लाना अपने आप में एक चुनौती है।

“दिल्ली आईआईटी की प्रोफेसर डॉ. रीतिका खेड़ा ने कहा है कि ऑनलाइन शिक्षा गरीबों के बच्चों के साथ भद्दा मज़ाक है”। 

यूनिसेफ ने प्राथमिक शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण व प्रभावशाली बताया है और कहा है कि जब भी लॉकडाउन जैसा कदम उठाना हो तब प्राथमिक स्कूलों को सबसे बाद में बंद करना चाहिए और जब सब कुछ खुलने लगे तो प्राथमिक स्कूलों को ही सबसे पहले खोलना चाहिए। क्यूंकि हम देखते है की घर के बड़े महिला पुरुष अपने अपने कार्यों को करने के लिए बाहर आते जाते रहते हैं इसलिए यदि वायरस आने का उन्हें कोई खतरा नहीं है तो बच्चों को खतरा कैसे हो सकता है। दूसरी सबसे खास बात ये है कि छोटे बच्चों में संक्रमण का खतरा कम है और इसके साथ साथ यदि प्राथमिक स्कूलों को लंबे समय तक बन्द रखा जाता है तो छोटे बच्चे कुछ भी संख्या या शब्दों को सीख नहीं पाएंगे, जिससे आने वाले समय में उन्हें भारी समस्याओं को सामना करना पड़ेगा। परंतु भारत में अब जब सब खुल चुका है तब कक्षा 9 से 12 तक के स्कूल सबसे पहले खुलने शुरू हुए हैं, जबकि होना इसका उल्टा चाहिए था क्यूंकि इन बड़े बच्चों को कम से कम लिखना पढ़ना तो आता ही है इसलिए इनका जितना नुकसान होना था वो हो चुका परंतु छोटे बच्चों का नुकसान तो प्रतिदिन हो रहा है। 

और हम देखें कि यदि छोटी बच्चियों को पढ़ने का अवसर नहीं मिला तो निश्चित रूप से उनकी शादी भी कानूनी उम्र से पहले ही होएगी, उसके बाद उन्हें शारीरिक और मानसिक तनाव का सामना भी करना पड़ सकता है और अनपढ़ता के दौर में शादियों में एक लड़की देके दूसरी लड़की लेने का प्रचलन भी बढ़ने की सम्भावना है। इसलिए सरकार को लड़कियों व उनके भविष्य और एक बेहतर भारत के निर्माण को ध्यान में रखते हुए सारे शिक्षण संस्थान खोल देने चाहिए और ऑफलाइन शिक्षा पुन: शुरू करनी चाहिए क्योंकि कोई भी देश लड़कियों को मुख्यधारा में शामिल किए बिना ना तो अपना विकास कर सकता है और ना ही वहां सभ्य समाज का निर्माण हो सकता है।

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