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By Radhika Barman

Congress party is bringing a big change in the country, starting from Uttar Pradesh, where it has given poll tickets to those who have suffered injustice at the hands of the ruling BJP.

Recently, Priyanka Gandhi came in news for empowering women by making them fight for elections. Asha Singh, whose daughter was raped and whose husband died in judicial custody, is to contest from Unnao on the Congress ticket. 

An ASHA worker who was roughed up by the police, a Congress leader who was jailed during Anti-CAA protests, and now yet activist who was attacked during Panchayat elections are all amonst the first list of Congress candidates in UP.  Priyanka Gandhi does seem to walk the talk in UP. On the other hand, BJP gave a ticket to Kuldeep Sengar’s wife in the panchayat polls only to cancel it later. 

Democracy is a government of the people, for the people and by the people, we were taught. But in reality, the democracy we have grown up with has been governments of, for, and by the politicians. For the first time in my memory, a major national party seems to change that.

Tickets have been granted to the most marginalized people born on the wrong end of the power structure, people who’ve known oppression, and people who have fought against it. They are survivors, not victims. They understand the pain, and will hopefully be empathetic legislators.

Yes, they may lack “experience and intimate know-how of the system”, and we have no idea of their competence since they have never been tested. But unless given the opportunity, how will anyone gain experience? 

Some may dismiss this as “tokenism”. But why would a party that is fighting a “do or die” election risk pandering to tokenism? Congress is talking of empowering the marginalized, and they are walking the talk. I, for one, rejoice. 

Whether the congress wins or loses, for the first time a major party has given tickets to the truly marginalized.

If change has to come, it can only come by empowering marginalized people who have known oppression. Others speak of upliftment, Congress in UP seems to be working towards it. It will be hypocrisy to dismiss it off on the name of tokenism, as it not only dismisses the challenges that will be faced by an abuse survivor to fight a tough political battle but also subscribes to the narrow-minded rape taboo. Instead of sympathizing over the “abuse” prefix let us be empathetic enough to acknowledge the importance of changing power structures, as that is the real fight in Indian democracy, much beyond elections. 

Lasting social change will only come when the most marginalized are empowered to speak for themselves. And that’s what feminism stands for – true equality for everyone and recognising the humanness in everyone. For this, what’s needed is not passive defence of toxic masculinity but affirmative actions of bringing people from all diaspora to have a real chance at contesting and winning elections. 

Thus, in a world of clashing interests – war against peace, nationalism against internationalism, equality against greed, and democracy against elitism, the UP elections are now a litmus test. It is a test of our humane credentials as to whether we subscribe to the idea of hate, violence, misogyny or love, peace, and progress. Whether or not, India will choose love over hate, is a question of time, but all we can hope for now is that the political fabric continues to strengthen itself to be inclusive.

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राजेश ओ.पी. सिंह

नब्बे के दशक में जब बहुजन समाज लोगों में इस बात की जागरूकता आई कि संख्या में तो वो ज्यादा है परन्तु सत्ता में उनकी भागीदारी नगण्य है, तब एक नारा “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” लगना शुरू हुआ। ऐसे अनेकों नारों व संघर्षों से बहुजन समाज ने अपने लोगों को एकजुट करके सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयास शुरू किए और काफी हद तक कामयाब भी हुए। इस प्रकार के नारों और संघर्षों की ज़रूरत महिलाओं को भी है, क्यूंकि महिलाएं संख्या में तो पुरुषों के लगभग बराबर है परन्तु सत्ता में उनकी भागीदारी ना के बराबर है। भारत में महिलाओं की स्थिति में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं, पिछले कुछ दशकों में उनकी सामाजिक स्थिति और अधिकारों में काफी बदलाव आए हैं परन्तु राजनीतिक प्रतिनिधित्व (सत्ता की भागीदारी) की स्थिति में कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला है। भारतीय राजनीति में आज भी आम आदमी की बात होती है, आम औरत के बारे में कोई बात नहीं करता, सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे में महिलाओं के मुद्दे सबसे अंत में आते हैं।


“इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन रिपोर्ट” जिसमे विश्व के निम्न सदनों में महिलाओं की संख्या के अनुसार रैंकिंग तय की जाती है, 2014 के आंकड़ों के अनुसार 193 देशों की सूची में भारत का 149 वां स्थान है, वहीं पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश जिन्हें हर कोई महिला विरोधी मानता है, जहां पर शासन कभी लोकतंत्र तो कभी सैनिकतंत्र में बदलता रहता है, इन देशों ने क्रमशः 100 वां और 95 वां स्थान प्राप्त किया है।


भारत में पहली लोकसभा (1952) चुनाव में महिला सांसदों की संख्या 22 (4.4%) थी, वहीं 17वीं लोकसभा (2019) चुनावों में ये संख्या 78 (14.39%) तक पहुंची है, अर्थात महिला सांसदों की संख्या को 22 से 78 करने में हमें लगभग 70 वर्षों का लंबा सफर तय करना पड़ा है।
राज्य विधानसभाओं में भी महिला प्रतिनिधियों की स्थिति नाजुक ही है, जैसे हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से यदि हम केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के चुनावी नतीजों का अध्ययन करें तो इनमे महिला विधायकों की संख्या केवल 9.51 फीसदी है। केरल राज्य, जहां बात चाहे स्वास्थ्य की करें या शिक्षा की करें, हर पक्ष में अग्रणी है, परंतु यहां कुल 140 विधानसभा सीटों में से केवल 11 महिलाएं ही जीत पाई हैं। वहीं तमिलनाडु जहां जयललिता, कनिमोझी जैसी बड़े कद की महिला नेताओं का प्रभाव है यहां 234 विधानसभा सीटों में से केवल 12 सीटें ही महिलाएं जीत पाई हैं। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल जहां महिला मुख्यमंत्री है वहां पर स्थिति थोड़ी सी ठीक है और 294 में से 40 महिलाओं ने जीत दर्ज की है। इसमें हम साफ तौर पर देख सकते है कि महिला पुरुषों की संख्या में भारी अंतर है।

संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत जैसे देशों में जहां महिलाओं की सत्ता में भागीदारी बहुत कम है और यदि ये गति ऐसे ही चलती रही तो इस पुरुष – महिला के अंतर को खत्म करने में लगभग 50 वर्षों से अधिक समय लगेगा।


सक्रिय राजनीति में महिलाओं की दयनीय स्थिति के लिए केवल राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार नहीं है, बल्कि हमारा समाज भी जिम्मेदार है, जो महिलाओं का नेतृत्व स्वीकार नहीं करता। जितनी महिलाएं राजनीति में हैं उनमें से 90 फीसदी महिलाएं राजनीतिक परिवारों से सम्बन्ध रखती है और इन्हें भी मजबूरी में राजनीति में लाया गया है जैसे हम हरियाणा की प्रमुख महिला नेताओं – कुमारी शैलजा, रेणुका बिश्नोई, किरण चौधरी, नैना चौटाला, सावित्री जिंदल आदि, की बात करें तो पाएंगे कि ये सब अपने पिता, ससुर या पति की मृत्यु या उपलब्ध ना होने के बाद राजनीति में आई है, शैलजा जी ने अपने पिता के देहांत के बाद उनकी सीट पर उपचुनाव से राजनीति में प्रवेश किया, सावित्री जिंदल और किरण चौधरी अपने पति की मृत्यु के बाद उनकी जगह पर चुनाव लडा, रेणुका बिश्नोई अपने ससुर जी के देहांत के बाद राजनीति में आई, वहीं नैना चौटाला अपने पति के जेल में होने के बाद उनकी सीट से चुनाव लड़ कर राजनीति में आई। इस से स्पष्ट होता है कि महिलाएं चुनाव लड़ती नहीं बल्कि उन्हें मजबूरी में लड़वाया जाता है। चुनावों में महिलाओं को स्टार प्रचारक के तौर पर प्रयोग किया जाता है, महिलाओं के लिए अनेकों योजनाएं घोषित की जाती है परन्तु टिकट नहीं दिए जाते।


महिलाओं पर उनकी पहचान, उनके रंग रूप, उनके शरीर की बनावट से लेकर उनके कपड़ों तक पर टिका टिप्पणी होती है। जैसे शरद यादव ने राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए कहा कि अब आप ज्यादा मोटी हो गई है, अब आपको आराम करना चाहिए, वहीं कुछ वर्ष पहले एक वामपंथी नेता ने ममता बनर्जी के लिए कहा कि ये लाल रंग से इतनी नफरत करती हैं कि अपने मांग में सिंदूर नहीं लगाती। अवसरवादिता और अति पुरुषवादी राजनीति, महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ने नहीं दे रही।


वहीं सीएसडीएस ने अपने एक सर्वे में पाया कि महिलाओं की राजनीति में कम संख्या के पीछे अनेक कारण है जैसे 66 फीसदी महिलाएं इसलिए राजनीति में नहीं आती क्योंकि उनकी निर्णय लेने की शक्ति नहीं के बराबर है, वहीं 13 फीसदी महिलाएं घरेलू कारणों से, 7 फीसदी महिलाएं सांस्कृतिक कारणों से, और कुछ राजनीति में रुचि ना होना, शैक्षिक पिछड़ापन असुरक्षा का भय, पैसे की कमी आदि।


एक कारण और भी है कि महिलाएं ही महिला उम्मीदवार का समर्थन नहीं करती, जैसे कि हम देखें भारत में 73 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पर महिलाओं के वोटों की संख्या पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है, परंतु इन 73 में से केवल 3 सीटों पर महिला सांसद चुन कर आई है, अर्थात जहां महिलाओं के वोट ज्यादा है वहां भी 96 फीसदी सीटें पुरुष उम्मीदवारों ने जीती हैं।


कई जगहों पर महिलाएं ही महिलाओं को विरोध करती नजर आती है जैसे श्रीमती सोनिया गांधी के लिए सुषमा स्वराज ने कहा था कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनी तो मैं अपना मुंडन करवा लूंगी, भाजपा की एक अन्य नेता शायनी एन.सी. ने एक बार मायावती पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मायावती महिला है भी या पुरुष। तो महिलाओं पर इस स्तर की घटिया टीका टिप्पणी न केवल पुरुष करते है बल्कि महिलाएं भी करती हैं।


सत्ता में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए महिला नेता भी ज़िम्मेदार है, जैसे कि उतरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान आदि राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री रहीं है या आज भी अपने पद पर बनी हुई हैं, परन्तु इन राज्यों में भी महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नगण्य ही है, इसका एक कारण ये है कि महिला नेता भी महिलाओं के लिए कार्य नहीं करती, महिलाओं को राजनीति में जगह नहीं देती, यदि इन मजबूत महिला नेताओं ने महिलाओं के लिए राजनीति का प्रवेश द्वार खोला होता तो शायद आज ये और भी ज्यादा मजबूत नेता होती।


अब असल सवाल ये है कि सत्ता में महिलाओं की भागीदारी को कैसे बढ़ाया जाए? इसके लिए सबसे उपयुक्त समाधान आरक्षण को माना जाता है, और महिला आरक्षण के संबंध में भारतीय संसद में 1996 से कई बार बिल लाया गया परन्तु अभी तक पास नहीं हो पाया है I असल बात तो ये है कि राजनीतिक दलों की इच्छा ही नहीं है कि महिलाओं को सत्ता में भागीदारी दी जाए क्योंकि यदि वो असल में महिलाओं की सत्ता में  भागीदारी चाहते तो सबसे पहले अपने पार्टी के संगठन में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देते और यदि महिलाओं को मुख्य संगठन में उचित प्रतिनिधित्व मिलता तो शायद उनके लिए अलग से महिला मोर्चा या महिला विंग बनाने कि जरुरत नहीं पड़ती I हम देखते है की इन महिला मोर्चा या विंग की पार्टी के निर्णयों में कोई भूमिका नहीं होती। ये मोर्चे या विंग अपने सदस्य महिलाओं को भी सत्ता में भागीदारी नहीं दिलवा पाते तो आम  महिला को कैसे दिलवा पाएंगे।
वहीं एक सवाल ये भी है कि क्या आरक्षण देने से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है? क्यूंकि आरक्षण से सदनों में महिलाओं की संख्या तो बढ़ जाएगी ,परंतु क्या महिलाएं निर्णय ले पाएंगी, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। जैसे यदि हम देखें कि पंचायतों में 1993 से महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं, महिलाएं सरपंच या प्रधान तो बन जाती है परन्तु सारे निर्णय उनके घर के पुरुष ही लेते हैं। उनका केवल नाम होता है।


अंत में हम कह सकते हैं कि महिलाओं की सत्ता में भागीदारी तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब उन्हें सभी दलों में उचित स्थान व पद मिले और साथ में निर्णय निर्माण की शक्ति मिले क्यूंकि बिना निर्णय निर्माण की शक्ति के महिलाएं चुनाव जीत कर भी कुछ नहीं कर पाएंगी। परंतु इस सब के बावजूद खुशी की बात ये है कि अब महिलाओं ने मतदान के लिए घरों से बाहर निकलना शुरू किया है, 1952 पहली लोकसभा में पुरुषों व महिलाओं के मतदान में 17 फीसदी का अंतर था, वहीं 2019 के सत्रहवीं लोकसभा में पुरुष महिला का ये अंतर घट कर 0.4 फीसदी रह गया है।

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राजेश ओ. पी. सिंह 


कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने बाजी मार ली है और 2011 के बाद से लगातार तीसरी बार प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने में सफल हुई है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने 2019 लोकसभा चुनावों में भारी हार का सामना किया था , तब से ( मई,2019) लेकर मई,2021 तक ममता बनर्जी और उनके चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर ने जबरदस्त और कुशल मेहनत करते हुए मतदाता को भरोसा दिलाया कि ममता ही बंगाल के मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है और इसी भरोसे के सहारे वो इस चुनाव में जबरदस्त वापसी करने में सफल हुए ।
पश्चिम बंगाल में 1977 से 2011 तक लगातार 34 वर्षो तक लेफ्ट ने शासन किया, 2011 में जब तृणमूल कांग्रेस ने पहली बार विधानसभा चुनाव जीता और  सत्ता पर काबिज हुई तो इस जीत की भूमिका कई वर्षों पूर्व में बनना शुरू हुई थी, सर्वप्रथम वर्ष 2008 में पश्चिम बंगाल में संपन्न हुए पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज की, उसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में भी तृणमूल कांग्रेस ने लेफ्ट को भारी पराजय का सामना करवाया और अंततः 2011 विधानसभा चुनावों में लेफ्ट को सत्ता से बाहर कर दिया, और बिल्कुल इसी पैटर्न पर भाजपा चल रही थी 2008 व 2009  की तरह 2018 के पंचायत व 2019 के लोकसभा चुनावों में भारी जीत हासिल करने में कामयाब रही थी और इसी आधार पर कुछ राजनीतिक व चुनावी विश्लेषकों का मानना था कि बंगाल 2011 के इतिहास को दोहराएगा और भाजपा  तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर पाने में सफल हो पाएगी, परन्तु ममता की कड़ी मेहनत ने इसे होने नहीं दिया, भाजपा व अन्य चुनावी राजनीतिक विश्लेषकों को जिन्हें लगता था कि पंचायत और लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधानसभा चुनाव भी जीतने में सफल हो पाएगी, वो सब ग़लत साबित हुए हैं।
ममता बनर्जी की जीत में उनके चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर की सबसे अहम भूमिका रही है, उन्होंने न केवल ममता को चुनाव जीतने में सहयोग किया है बल्कि चुनाव से  पांच महीने पहले कही बात कि भाजपा दो डिजिट पार नहीं करेगी , को भी सच साबित किया है, यहां प्रशांत के लिए दोहरी चुनौती थी, परन्तु वो इस चुनौती को भेद पाने में कामयाब रहे है। प्रशांत किशोर के अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण बिंदु ऐसे है जिन्होंने ममता के चुनाव जीतने में अहम भूमिका निभाई है , उनका जिक्र इस प्रकार है –
मजबूत नेतृत्व और साफ छवि – ममता हमेशा से जुझारू व मजबूत नेता रही है, इस चुनाव में भी उन्होंने व्हील चेयर पर होने के बावजूद सक्रिय भूमिका निभाई और हर जगह संघर्ष करते हुए नजर आई। इसके आलावा उनकी साफ छवि ने भी मतदाताओं को उनकी तरफ आकर्षित किया है, क्योंकि ममता सरकार में भ्रष्टाचार के सारे आरोप उनके मंत्रियों या विधायको के सिर पर रहें है और ऐसे लगभग सभी खराब और नकारत्मक छवि वाले लोगों को या तो पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर वो खुद पार्टी छोड़ कर चले गए । उनके जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस एक बार फिर साफ सुथरी हो गई और ममता की साफ छवि का आकर्षण मतदाताओं को अपनी तरफ खींच पाने में सफल हुआ।
महिला नेतृत्व होने की वजह से महिलाओं के वोट को तृणमूल कांग्रेस अपनी तरफ कर पाने में सफल रही है, क्यूंकि दूसरी विरोधी पार्टी के पास महिला नेतृत्व का अभाव था ।
सरकारी योजनाओं की आम जन तक पहुंच – लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद से लेकर पिछले दो वर्षो में ममता सरकार ने लगातार अनेक कार्यक्रम चलाए जिनसे सरकारी योजनाओं की आम जन तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सका, इनमें सबसे प्रमुख था ” ममता के बोलो ”  इसमें एक फोन नंबर दिया गया और कोई भी व्यक्ति अपनी बात सीधा ममता को बता सकता था और हर व्यक्ति की बात को ममता की टीम द्वारा सुना गया और आम जन की हर समस्या को दूर करने का पूर्ण प्रयास किया, इसका मतदाताओं पर बहुत साकारात्मक प्रभाव पड़ा ।
बाहरी व अंदरूनी का प्रभाव – ममता ने इसको मुद्दा बनाया और बंगाली लोगों को ये समझा पाने में कामयाब रही कि मैं आपकी आपनी हूं और भाजपा वाले बाहरी है, इसलिए आप अपनों के लिए मतदान करें ना की बाहरी के लिए। इस सिलसिले में ममता की पार्टी ने कई नारे जैसे बंगाल की बेटी, बंगाल का सम्मान , बंगाली बनाम गैर बंगाली आदि, जिनका ममता बनर्जी को पूरा फायदा मिला है।
सोशल इंजीनियरिंग – तृणमूल कांग्रेस लोकसभा चुनावों में जिन क्षेत्रों में हारी थी, बात चाहे जंगल महल क्षेत्र की करें या कूचबिहार की, वहां पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदाता ज्यादा संख्या में हैं । इसलिए विधानसभा चुनावों में ममता ने इन जातियों का खास ख्याल रखा, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बंगाल में 68 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है परन्तु तृणमूल कांग्रेस ने 79 सीटों पर अनुसूचित जाति के लोगों को चुनाव लड़वाया ,वहीं अनुसूचित जनजाति की 16 सीटें आरक्षित है परन्तु तृणमूल कांग्रेस की तरफ से 17 सीटों पर अनुसूचित जनजाति के लोग चुनाव लड़ रहे हैं।दूसरा उत्तरी बंगाल में ( कूचबिहार, दार्जलिंग आदि क्षेत्र) एक महत्वपूर्ण अनुसूचित जाति है ‘ राजवंशी ‘ उन्हें ये आश्वाशन दिया गया कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनने पर उनके मुख्य देवता के जन्मदिन पर प्रदेश में सरकारी अवकाश घोषित किया जाएगा,उनकी भाषा को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाएगा, उनकी जाति के नाम से एक नई पुलिस फोर्स बनाई जाएगी ,आदि आश्वासनों ने भी इस समुदाय जो की लोकसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में गया था को वापिस तृणमूल कांग्रेस की तरफ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ममता ने अनुसूचित जातियों को फिर से विश्वास दिलवाया की वो ही उनकी सच्ची हितेषी है और अपने पक्ष में मतदान करवाने में सफल हो पाई।
तृणमूल कांग्रेस ध्रुवीकरण की राजनीति से दूर रही और  पूरे चुनावों के दौरान उसने समग्र मतदाताओं पर ध्यान दिया, ममता ने हिन्दू – मुस्लिम, छोटे लोग – भद्र लोग , शहरी – ग्रामीण आदि कोई अंतर नहीं किया और सभी वर्गों पर पूरा ध्यान दिया जिसका फायदा ममता की पार्टी को मिला, क्यूंकि इस से हर समुदाय का कुछ ना कुछ वोट ममता के पक्ष में आया, वहीं दूसरी तरफ भाजपा मुस्लिम जो कि प्रदेश में 30 प्रतिशत के आसपास है को पार्टी से अलग थलग रखा, और केवल 70 प्रतिशत मतदाताओं के सहारे चुनाव लड़ रही थी वहीं दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस का ध्यान पूरे 100 प्रतिशत मतदाताओं पर था, और इसी का नतीजा है कि तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हो पाई है।
भाजपा बनाम भाजपा का फायदा भी ममता को मिला है, क्यूंकि भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर गए लोगों को पार्टी में अहम स्थान दिए और उन्हे चुनाव भी लड़वाए, इस से भाजपा का पुराना मतदाता नाराज़ हुआ क्यूंकि उस क्षेत्र में उनकी लड़ाई उसी व्यक्ति से थी परन्तु अब वो व्यक्ति भाजपा का उम्मीदवार हो गया था , जैसे बहुत से स्थानों पर मतदाताओं ने साफ साफ बोला कि वो तृणमूल कांग्रेस के इसी नेता के खिलाफ थे उनकी लड़ाई इसी के खिलाफ थी परन्तु अब वो भाजपा में आ गया है तो हम कैसे उसे वोट दे, हमारी लड़ाई आज भी उसी के खिलाफ है, इस प्रकार ऐसे लोगों ने भाजपा से नाराज होकर ममता के पक्ष में मतदान किया है।
और भी अन्य कई कारण है जिनकी सहायता से ममता चुनाव जीतने में सफल हो पाईं है इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उनका साधारण व्यक्तित्व, उनकी कड़ी मेहनत करने की लालसा आदि।

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By Rohini Sen

The second phase of the West Bengal Assembly elections concluded amidst BJP’s raging (and tone deaf) rhetoric of Hindutva and development. And in the middle of all this, stands the brutally caricatured figure of Mamata Banerjee, the CM. In popular imagination she is either “didi”, the omnipotent, loud mouth leader of TMC or, she is emblematic of all that is wrong with contemporary political vision in a state that just does not seem to fit anywhere with its peculiar nostalgic, baggage.

What is common to both is the complete flattening of the image of a woman who is desperately trying to hold on to her power in the overarching male political idiom of a country. This is not a vindication of her actions, the massive failures and deep dysfunctions of the party. But in portraying her as one or the other, there is a constant tendency to invisibilise what she is really up against.

How bhawdro (decent) or obhawdro (indecent) she is seems to far outweigh the rank communalism of BJP, the horrible psychic contortion that every female politician has to undergo to simply hold ground and, how all vulgar political pronouncements by literally any man is simply “a part of the system.”

Not hers though. Her scattered English and public stunts at visibility are mostly hashir khorak (object of ridicule). Again, this is not a vindication of violence or misbehaviour. But reducing her to hysterics, parody and caricature takes away attention from significant things.

The fact that the Prime Minister and Home Minister of the ruling central party are using all their might in a desperate effort to win one single state. That not once has the conversation been on issues, even the low hanging fruits, that ail Bengal.

But most importantly, that we always see female politicians with the standards given to us by our grandfathers, uncles and other male figure who decide the limits of public spaces.

The collective will of BJP has condensed on decimating its opponents through a rhetoric of ridicule. And there are innumerable bad things happening in this election. But, a harangued woman desperately trying to save her political capital is not the worst of them.

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