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राजेश ओ.पी.सिंह

एक अध्ययन के मुताबिक कूड़ा बीनने वालों में 80 फीसदी संख्या महिलाओं की है और ये सब महिलाएं दलित समुदाय से सम्बन्ध रखती है, जैसे कहा जाता है कि सारे दलित तो सफाई कर्मचारी नहीं है परन्तु सभी सफाई कर्मचारी दलित ही है। भारत में कोई महिला या पुरुष अपने काम की वजह से सफाई कर्मचारी नहीं है बल्कि वह अपने जन्म के कारण सफाई कर्मचारी है, भले ही वह ये काम करना चाहती/चाहता हो या नहीं । यहां यह सब जाति और पितृसत्तात्मक सोच के कारण है।

आधुनिकता व तकनीक से परे कूड़ा बीनना आज भी देश का सबसे कम वेतन वाला और सबसे ख़तरनाक काम है, जिसमे लगभग 600 सफाई कर्मचारी प्रतिवर्ष मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

सफाई करने वाली महिलाओं में लगभग 39 – 41 फीसदी वो महिलाएं हैं जिनके पति सफाई करते समय मर गए, उनके देहांत के बाद इन्हें अपने पति के स्थान पर बड़ी मुश्किलों से ये नौकरी मिली हैं । इन महिलाओं में केवल 0.03 फीसदी महिलाओं ने ही 10वीं तक की पढ़ाई की है। जब इन्हें नौकरी पर रखा जाता है तो क्या नियम व शर्तें होएंगी इसके बारे में इन्हें अनपढ़ता की वजह से कुछ भी जानकारी नहीं दी जाती और इससे इन महिला सफाई कर्मचारियों से कम वेतन पर ज्यादा घंटे काम करवाया जाता है। जिसका इनके स्वास्थ्य और परिवार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

सफाई करने वाली महिलाओं का जीवन विभिन्न चुनौतियों को एक साथ झेलता हुआ चलता है, सबसे पहले इन महिलाओं को नौकरी करने के साथ साथ अपने घर के सारे काम करने पड़ते है वहीं दूसरी तरफ घर की आजीविका भी इन्हे ही चलानी होती है,और बच्चों को पालना ,उनका ध्यना रखना ये सब कार्य भी इन्हे करने पड़ते हैं। क्यूंकि अधिकतर महिलाओं के पति या तो मर चुके होते हैं या फिर जो जीवित होते हैं उनमें से लगभग सभी के सभी अपनी कमाई का 65-70 फीसदी हिस्सा शराब व अन्य नशों में खर्च कर देते हैं ,इसलिए परिवार की सारी जिम्मेदारियां महिलाओं पर ही रहती है।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना काल में दिल्ली नगर निगम में मरने वाले कुल 94 कर्मचारियों में आधे से ज्यादा संख्या (49) सफाई कर्मचारियों की है। अब इन परिवारों में सारी जिम्मेवारियां घर की महिलाओं पर आ गई है अब या तो इस काम को वो खुद करेगी या फिर उनके बच्चे। यदि वो खुद करना शुरू कर देती है तो निश्चित रूप से बच्चों पर ध्यान देना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा, इस से बच्चों का पढ़ाई छोड़ना और अन्य कार्यों में संलिप्त होने की सम्भावना ज्यादा है या यदि बच्चे अपने पिता के बाद सफाई का काम शुरू करते है तो निश्चित रूप से उनकी पढ़ाई रुक जाएगी। ये व्यवस्था बहुत लंबे समय से चली आ रही है, अब इसमें सुधार होना चाहिए क्योंकि बिना किसी सुधार के इनकी आने वाली पीढ़ियां भी अनपढ़ रह कर इसी काम में संलिप्त रहेगी। हालांकि सरकार ने कोरोना में मरने वाले इन सफाई कर्मचारियों के परिवार को एक एक करोड़ रुपए और एक नौकरी देने का वादा किया है परन्तु ये अभी एक दो लोगों को ही मिला है। 

अब प्रश्न ये उठता है कि इतनी बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारियों कि आकस्मिक मृत्यु क्यों हुई? इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण ये है कि कोरोना के समय में जब हम सब लोग घरों में बैठे थे, तब इन सफाई कर्मचारियों को अपना जीवन दांव पर लगाकर प्रतिदिन सफाई करने के लिए घरों से निकलना पड़ रहा था, वहीं 93 फीसदी सफाई कर्मचारियों ने माना कि सरकार की तरफ से उन्हें ना तो मास्क मिले, ना सेनेटाइजर और ना ही पीपीई किट। प्रोटेक्शन के बिना कार्य करते हुए कोरोना संक्रमण ने इन्हे अपनी चपेट में ले लिया जिस से बड़ी संख्या में इन्हे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है। 

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने एक रिपोर्ट में दावा किया है कि सामान्य तौर पर एक सफाई कर्मचारी की मृत्यु 60 वर्ष की उम्र से पहले ही हो जाती है, अर्थात सफाई कर्मचारियों कि औसत उम्र 60 वर्ष से कम है। इसके पीछे मुख्य कारण ये है कि सफाई के क्षेत्र में आधुनिकता के समय में भी तकनीकों का अभाव है और इसके साथ साथ सफाई कर्मचारी को अपने पूरे जीवन गंदी हवा में सांस लेना पड़ता है, ऐसे क्षेत्र जहां से आम महिला या पुरुष गुजरे तो भी उन्हें अपनी नाक बंद करनी पड़ती है, परंतु उस बदबूदार जगह पर इन सफाई कर्मचारियों का जीवन गुजरता है। गन्दी हवा में सांस लेने से इन्हे सांस के अनेकों बीमारियों से संक्रमित होना पड़ता है। इसके साथ साथ हमने पाया है कि प्रत्येक शहर या गांव के किसी कोने में इन लोगों को झुगी झोंपड़ियों में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है, जहां पर ना तो पानी की व्यवस्था होती है, ना बिजली की और ना ही शौचालयों की। गन्दा पानी पीने से इन्हे फेफड़ों और पथरी की समस्या से जूझना पड़ता है। शौचालय ना होने कि वजह से इन्हें घंटो घंटो तक प्राकृतिक दवाब की रोकना पड़ता है, जिस से पेट की बीमारियों का खतरा निरन्तर बना रहता है। इन कर्मचारियों में महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा नाज़ुक है ,क्यूंकि इन्हे ज्यादा कार्य करने की वजह से व सही खान पान ना होने से और काम उम्र में शादी और मां बन जाने से इनके शरीर में कमजोरी रहती है, जिस से ये बहुत कम उम्र में ही बूढ़ी और असहाय दिखने लगती है। 

जिन महिलाओं के पति नहीं है उन्हें अपने दिन के लगभग 16 से 18 घंटे कार्य करना पड़ता है। एक सफाई कर्मी महिला सुबह 5 बजे उठ कर खाना बना कर काम पर निकल जाती है जहां सात बजे से दस बजे तक सफाई करने के बाद 10.30 बजे तक घर पहुंचती हैं इसके बाद घर की सफाई, कपड़े धोना, दोपहर का खाना, नहाना आदि में उन्हें 4 बज जाते हैं, इसके बाद कुछ शाम को भी सफाई करने जाती है तो उन्हें कम से वापिस आकर रात का खाना बनाने में 9 बज जाते है और 11 बजे तक सब काम निपटा कर सो पाती हैं, इस थकान भरे दिन में वे अपने बच्चों और खुद के स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान नहीं रख पाती और उसका नुकसान उनकी पूरी पीढियों को भुगतना पड़ रहा है।

इसके लिए सरकार द्वारा कोई विशेष उपबंध और तकनीकों का प्रबन्ध करने की आवश्यकता है ताकि इन सफाई कर्मचारियों की स्थिति में सुधार आए और इनके बच्चे स्वस्थ रह सकें और उन्हें किसी मजबूरी में पढ़ाई ना छोड़नी पड़े।

Image Courtesy: BBC

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राजेश ओ.पी. सिंह

भारत के उत्तर में स्थित प्रदेश हरियाणा जो अपने देसी खानपान और खेलकूद के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है, 2004-2005 से लगातार प्रदेश के खिलाड़ियों ने प्रत्येक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में बेहतर प्रदर्शन किया है और भारत के लिए पदक जीते हैं।

2005 से 2014 तक प्रदेश में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी और इस सरकार द्वारा प्रोत्साहन स्वरूप राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में पदक जीतने वाले हरियाणा के खिलाड़ियों को न केवल धनराशि दी जाती थी बल्कि सरकारी नौकरी और बढ़िया विश्वस्तरीय ट्रेनिंग की भी व्यवस्था की जाती थी। कांग्रेस सरकार की साफ नीयत और नीति से ही 2008 के बीजींग ओलंपिक में भारत को मिले कुल 3 पदकों में से दो हरियाणा के खिलाड़ियों ने जीते, इसके बाद 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत की पदक तालिका को 6 पदकों तक पहुंचाया, जिसमे से तीन मेडल हरियाणा के खिलाडियों ने जीते ,परन्तु प्रदेश की मौजूदा भाजपा सरकार ओलंपिक 2016 में ये सिलसिला में बना कर नहीं रख पाई और प्रदेश की केवल एक खिलाड़ी ही पदक जीतने में सफल हुई।

अभी हाल ही में रोहतक जिले में पड़ने वाले गांव
सिसर खास जहां से भारोत्तोलन की एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी सुनीता देवी का मामला सामने आया है, जिन्होंने राज्य स्तर पर कई बार गोल्ड मेडल जीते है, फरवरी 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल जीता वहीं फरवरी 2020 में यूरोपियन वर्ल्ड चैमपियनशिप जो कि थाईलैंड के बैंकॉक में संपन्न हुई थी में भी गोल्ड पदक जीत कर भारत का नाम रोशन किया I परंतु उनकी मौजूदा हालात प्रदेश और केंद्र में भाजपा सरकार की बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, जैसी अनेकों योजनाओं की पोल खोल रही है I अपने छोटे से जीवन में इतने मेडल जीतने वाली अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी सुनीता के साथ प्रदेश सरकार भेदभाव कर रही है I उनके पास ना तो ट्रेनिंग के लिए पैसे है ना ही अच्छे खाने (डाइट) के लिए पैसे है I

जब वो युरोपीयन वर्ल्ड चैंपियनशिप खेलने गई तो इसका खर्च उठाने के लिए इनके घर वालों ने ब्याज पर कर्ज लिया I इन्हे उम्मीद थी कि इतनी बड़ी खेल प्रतियोगिता में मेडल जीतने के बाद घर की स्थिति में सुधार आएगा और वो आगे अपने ओलंपिक के सपने के लिए ट्रेंनिंग कर पाएगी I परंतु जब ऐसा नहीं हुआ, वो तब भी जोहड़ किनारे टूटे फूटे मकान में रहते थे जिसमे एक ही कमरे में रसोई है, वहीं सोने की व्यवस्था है और आज भी उसी में रह रहें है।

परिवार ने सुनीता को यूरोपियन वर्ल्ड चैंपियनशिप में भेजने के लिए जो कर्ज लिया था उसे चुकाने के लिए अब सुनीता समेत पूरा परिवार दिहाड़ी करता है I एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी सुनीता को जब अपनी ट्रेनिंग करनी चाहिए तब वो लोगों के घरों में बर्तन साफ करती है I जब सुनीता को बढ़िया डाइट लेनी चाहिए तब उसे लोगों की शादियों में रोटी बनाने का काम करना पड़ता है I जब सुनीता को अपने खेल में सुधार के लिए कौशल सीखना चाहिए तब उसे घर के कार्य करने पड़ते है।

सुनीता, जो की पास के ही सरकारी कॉलेज में बी.ए. द्वितीय वर्ष में पढ़ाई करती है, को अपने कॉलेज की तरफ से भी वो मान सम्मान और सहयोग नहीं मिला जो एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को मिलना चाहिए I अब प्रश्न ये है कि क्या सुनीता एक पुरुष होता तो भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार होता? शायद नहीं।

गांवों में सुनीता जैसी कई महिला खिलाड़ी हैं, जिन्हें सरकार की गलत नीयत और नीति का शिकार होना पड़ता है, यदि सरकार साफ नीयत और नीति से सुनीता जैसी विश्वस्तरीय खिलाड़ियों के लिए बढ़िया ट्रेनिंग और अच्छे खाने पीने की व्यवस्था करे तो ये महिला खिलाड़ी निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारत का नाम रोशन करेंगी और हरियाणा को पदक तालिका में अव्वल रखेंगी।

हरियाणा प्रदेश में खेल मंत्री (संदीप सिंह, पूर्व भारतीय हॉकी कप्तान) जो खुद एक खिलाड़ी है उन्हे अच्छे से मालूम है कि एक खिलाड़ी किस स्तर पर किस प्रकार की मुसीबतों का सामना करता है और यदि किसी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बहुत ही ज्यादा खराब हो और खिलाड़ी महिला हो तो कैसी परिस्थितियों से उसे गुजरना पड़ता है,इस बारे में वो अच्छे से समझ सकते हैं I परंतु इस सबके बावजूद ना तो खेल मंत्रालय, ना ही प्रदेश सरकार और ना ही केंद्र सरकार द्वारा कुछ किया जा रहा है और ऐसे खिलाड़ियों का भविष्य अंधकार में धकेला जा रहा है।

सुनीता जैसी अनेकों महिला खिलाडियों की अनदेखी के पीछे सरकार की पितृसत्तात्मक सोच काम कर रही है और इस प्रकार की सोच को हावी होने से रोकने के लिए महिलाओं को एकजुट होना होगा I अपने हितों को ध्यान में रख कर मतदान करना होगा और राजनीति में प्रवेश करके नीति निर्माण में अपना स्थान सुनिश्चित करना होगा क्योंकि जब तक महिलाएं खुद मजबूत नहीं होएंगी और नीति निर्माता नहीं बनेंगी तब तक महिलाओं के साथ ऐसा भेदभाव होता रहेगा I इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि महिलाएं अपने अधिकारों के लिए जागरूक हों और एक शक्ति के रूप में सामने आए ताकि हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। जब तक ये नहीं होएगा तब तक पुरुष अपने हिसाब से महिलाओं के लिए नीतियां बनाते रहेंगे, अपने हिसाब से उनका संचालन करते रहेंगे और उनकी नीतियों से सुनीता जैसी अनेकों अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों का भविष्य बर्बाद होता रहेगा।

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