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औरत

by Guest Author

By तबस्सुम आज़मी

बढ़ाती हूँ क़दम
फ़ौरन ही पीछे खींच लेती हूँ
ये अंदेशा मुझे आगे कभी बढ़ने नहीं देता
न-जाने लोग क्या सोचें
न-जाने लोग क्या बोलें
इसी इक ख़ौफ़ के घेरे में जीती और मरती हूँ
मगर कब तक

तशख़्ख़ुस के लिए अपनी ज़रूरी हो गया है अब
उठूँ और काट दूँ एक एक कर के बेड़ियाँ सारी
बग़ावत कर दूँ दुनिया की
सभी फ़र्सूदा रस्मों से
हर इक दस्तूर-ए-बेजा से
ख़ुदा ने जब किसी से मेरा रुत्बा कम नहीं रक्खा
तो किस ने हक़ दिया उन को
मुझे ज़ंजीर पहनाएँ
ज़बाँ खोलूँ जो अपने वास्ते ताला लगा जाएँ

मुझे मालूम है मेरी मुक़र्रर हद कहाँ तक है
मुझे है पास अपनी हुरमत-ओ-क़दर-ओ-रिवायत का
वफ़ा नामूस-ओ-इफ़्फ़त का शराफ़त और अज़्मत का
कि ये अक़दार मेरे पाँव की बेड़ी नहीं हरगिज़
इन्हीं अक़दार के हमराह मुझ को आगे बढ़ना है
मिला है हक़ मुझे भी
वक़्त के हमराह चलने का
ख़ुद अपने ख़्वाब बुनने का
इन्हें ता’बीर देने का
ये दुनिया मेरे हाथों से क़लम जो छीन लेती है
हमेशा चूल्हे-चौके तक ही बस महदूद रखती है
इसे शायद यही ख़दशा सताता रहता है हर-दम
मिरी ये आगही मुझ को नई पहचान दे देगी

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By राजेश ओ.पी. सिंह

अभी हाल ही में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चनावों के नतीजे आए और दोनों राज्यों की विधानसभाओं में एक बार फिर से महिलाओं को पुरुषप्रधान समाज ने गायब कर दिया।

68 सीटों वाली हिमाचल प्रदेश विधानसभा में केवल एक सीट और 182 सीटों वाली गुजरात विधानसभा में केवल 16 सीटों पर ही इस पितृस्तातमक समाज ने महिलाओं को जीतने दिया है। आजादी के 75 वर्षो बाद जब भारत सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है तब यदि विधानसभाओं में महिला पुरुषों की संख्या के बीच इतना अंतर है तो ये भारत देश के लिए चिंता का विषय है। क्योंकि जब तक प्रतिनिधित्व में महिलाओं को उनका हक नहीं दिया जाएगा तब तक उनकी स्थिति में सुधार की गुंजाइश बहुत कम नजर आती है।

भारतीय संविधान में किए गए लैंगिक समानता के प्रावधान के बावजूद और जब महिला मतदाताओं की संख्या लगभग पुरुषों के बराबर है तब भी महिलाओं को राजनीति में भागीदार नहीं बनने दिया जा रहा। यहां एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर कब तक महिलाओं को पुरुषों द्वारा अपने अनुसार बनाई गई नीतियों पर अपना जीवन यापन करना पड़ेगा? क्योंकि जब नीति निर्माण की सारी शक्तियां विधायिका के पास होती है, तो फिर विधायिकाओं में महिलाओं की संख्या को क्यों नहीं बढ़ने दिया जा रहा? 

गुजरात विधानसभा में पितृसत्ता ने आज तक केवल चार बार ही 9 फीसदी सीटे महिलाओं को जीतने दी हैं, उसके अलावा ये आंकड़ा 7 फीसदी या इससे कम रहा है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा में तो स्थिति इस से भी बुरी है और यहां केवल दो बार ही महिलाओं को 7 फीसदी सीटें जीतने दी गई हैं और ये आंकड़ा इस बार तो घटकर डेढ़ फीसदी पर आ गया है।

वहीं बात यदि लोकसभा चुनाव 2019 की करें तो पहली बार 14 फीसदी महिलाओं को लोकसभा में पहुंचने दिया गया है। इस से पहले ये आंकड़ा 10 फीसदी के आसपास रहा है। और भारत के 19 राज्य ऐसे हैं जहां कि विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से कम है।

भारत ही नहीं बल्कि विश्व में पुरुषप्रधान समाज द्वारा ये अवधारणा गढ़ी गई हैं कि महिलाएं चुनाव नहीं जीत सकती, जो कि गलत अवधारणा है, इस पर पूर्व चुनाव आयुक्त एस.वाय.कुरैशी कहते हैं कि यदि आजाद भारत के 70 सालों के चुनावी इतिहास के आंकड़ों पर गौर की जाए तो पाएंगे कि हर बार चुनाव जीतने वाली महिलाओं का अनुपात उन्हें दिए गए टिकटों से अधिक रहा है। आज तक सभी राजनीतिक दलों से बने कुल उम्मीदवारों में केवल 6 प्रतिशत ही महिलाएं रही हैं जबकि इनके जीतने की दर 10 प्रतिशत है। जो महिलाओं के जीतने की क्षमता को दर्शाता है कि भारत में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संख्या में चुनाव जीत सकती है बकायदा उन्हें ज्यादा मौके दिए जाएं। जैसे यदि हम 2019 लोकसभा चुनाव को देखें तो पाएंगे कि कुल उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या केवल 9 प्रतिशत थी जबकि 14.4 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की। वहीं दूसरी तरफ पुरुष उम्मीदवारों में जीतने की दर केवल 6.3 प्रतिशत थी।

इससे तस्वीर साफ हो रही है कि महिलाओं की चुनाव जीतने की क्षमता पुरुषों से ज्यादा है परंतु उन्हें मैदान में उतरने ही नही दिया जा रहा। जैसे बीजेपी ने गुजरात में 182 उम्मीदवारों में से केवल 18, वहीं कांग्रेस ने 14 और आम आदमी पार्टी ने केवल 6 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया। अब जब चुनाव लड़ने का मौका ही नही दिया जाएगा तो कैसे ही कोई महिला चुनाव जीत पाएगी। 

प्रत्येक देश को रवांडा से सीख लेनी चाहिए, यहां संसद में महिला सांसदों की संख्या 61 प्रतिशत के आसपास है और इतनी संख्या पूरे विश्व की किसी संसद में नहीं है। और ये तब है जब रवांडा ने आज से 30 वर्ष पूर्व दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार झेला। इतने कम समय में अर्थव्यवस्था को फिर से उभारते हुए और संसद में दो तिहाई सीटों पर कब्जा करते हुए महिलाओं ने करिश्मा कर दिखाया है।

रवांडा की महिलाओं ने नरसंहार के बाद कारोबार को अपने हाथ में लिया, महिलाओं को जागरूक करने के लिए विभिन्न समूह और एनजीओ निर्मित की गए और समय समय पर अभियान चलाए गए क्योंकि महिलाएं समझ चुकी थी कि यदि वो घरों से बाहर नहीं निकली तो स्थितियां और ज्यादा खराब हो जाएंगी। 

इसी प्रकार भारत की महिलाओं को भी अब घरों से बाहर आना होगा और एक दूसरे के साथ एकजुटता दिखाते हुए मजबूती से अपने हक पर कब्जा करना होगा। क्योंकि अब पुरुषों के भरोसे नहीं रहा जा सकता कि वो महिलाओं को उनका हक दे देंगे।

भारत में पंचायतों की तरह लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित की जानी चाहिए और ये महिला आरक्षण बिल पिछले लंबे समय से भारतीय संसद में धूल छांट रहा है। और निकट समय में इसके पास होने की कोई संभावना नहीं हैं क्योंकि कोई भी प्रस्ताव या बिल तभी नियम बनता है जब उसके पक्ष में बहुमत सांसद मतदान करते हैं परंतु भारतीय संसद में महिलाओं की संख्या तो केवल 14 फीसदी ही है और लगभग 86 फीसदी सीटों पर काबिज पुरुष सांसदों से उम्मीद न के बराबर है तो कैसे ही ये बिल पास हो पाएगा और कानून या नियम बन पाएगा।

इसलिए बिना आरक्षण बिल का इंतजार किए महिलाओं को अपनी ताकत दिखानी होगी और  पुरुषप्रधान समाज के मुंह पर तमाचा लगाते हुए प्रतिनिधित्व छीनना होगा ताकि अपने लिए खुद नीतियों और योजनाओं का निर्माण कर सके और महिलाओं को उभरते भारत में उभारा जा सके।

 

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राजेश ओ.पी.सिंह

“पौ फटने पर गोधूलि तक,

महिला करती श्रम,

पुरुष उसकी मेहनत पर जीता है, मुफ्तखोर,

क्या इन निकम्मों को मनुष्य कहा जाए” 

( सावित्री बाई फुले की ” क्या उन्हे मनुष्य कहा जाए” नामक कविता से)

सावित्री बाई फुले का जन्म आज ही के दिन (3 जनवरी 1831) में महाराष्ट्र में हुआ था,उनका जन्म उस समय हुआ जब भारत में सभी औरतों के लिए बड़े कड़े नियम थे और उस दौर में बाल विवाह ,सती प्रथा, बालिका भ्रूण हत्या आदि कुरीतियां समाज में उपस्थित थीं। इन सभी में विधवा महिलाओं को स्थिति सबसे नाजुक थी, क्यूंकि बाल विवाह के कारण बहुत बार ऐसा होता था कि जब लड़की 2-3 वर्ष की होती तभी उसके पति का देहांत हो जाता और वो फिर तभी से विधवा हो जाती और सारी उम्र विधवा के रूप में बीताती, विधवाओं को समाज में कोई सम्मान से नहीं देखता था, बेवसी में उनके परिवार वाले ही उन बच्चियों का नाजायज फायदा उठाते, अनेकों बार तो गर्भ पति विधवाओं को आत्महत्या करनी पड़ती या उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया जाता। 

जन्म से ही बच्चियों को घर के कार्यों में सलांगित करना शुरू कर दिया जाता था और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार बंद थे और ये माना जाता था कि महिलाओं को पढ़ना लिखना नहीं चाहिए क्योंकि इनका कार्य सेवा करना है इसलिए इनके लिए पढ़ना लिखना अपराध माना गया ।  

इसी दौर में जब सावित्री बाई फूले का जन्म हुआ तो वो भी इस से अछूती ना रह पाई और मात्र 9 वर्ष की बाल आयु में ही उनका विवाह ज्योतिबा फूले ( जो कि बाद में अपने कठिन प्रयासों और मेहनत के बल पर अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिल कर महान समाज सुधारक के रूप में सामने आए) से कर दिया गया। और जैसे कि यूनेस्को आज भी मानता है कि महिला के विकास में सबसे ज्यादा अवरोधक उसकी कम उम्र में शादी करने से पैदा होता है, जिससे उसका ना केवल शारीरिक बल्कि मानसिक विकास भी नहीं हो पाता , परन्तु सावित्री बाई फूले के जीवन में कुछ अलग ही होना था, उन्हें ज्योतिबा सरीखा पति मिला जो कि खुद भी पढ़ाई कर रहे थे और समाज की बुराइयों को देख और समझ कर उन्हे दूर करने के अपने प्रयास में लगे हुए थे।

ज्योतिबा फुले ने देखा कि महिला शिक्षा ना होने की वजह से समाज को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है, इसलिए महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने प्रयत्न करने शुरू किए जो कि उस समय में बहुत ही चुनौती का कार्य था, परन्तु ज्योतिबा फूले पीछे हटने वालों में से नहीं थे इस सिलसिले में उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले को पढ़ाने लिखाने का सोचा और प्रतिदिन उन्हें सीखाना शुरू किया, बहुत कम समय में ही सावित्री बाई फूले पढ़ना लिखना सीख गई तो ज्योतिबा ने उन्हें अन्य लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया।

1848 में फूले दंपति ने भिड़े वाडा, पुणे में लड़कियों के लिए भारत में प्रथम कन्या स्कूल खोला (इससे पहले केवल अंग्रेज़ों द्वारा संचालित स्कूल ही थे) और स्कूल में लड़कियों को शिक्षा देने का कार्य शुरू किया और बहुत कम समय में इनके स्कूल में वहां के लड़कों के सरकारी स्कूल की संख्या से भी ज्यादा लड़कियां पढ़ने के लिए आने लगी, और ये फूले दंपति के लिए अतिउत्साह उत्पन्न करने वाला क्षण था, इसी से प्रेरणा लेकर बहुत कम समय में फुले दंपति ने स्कूलों की संख्या बढ़ाना शुरू किया और 1852 आते आते इनके स्कूलों की संख्या 18 हो गई और इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने इन्हे सम्मान प्रदान किए। इसके अलावा इन्होने गरीब बच्चों के लिए हॉस्टल भी खोले।

परंतु सावित्री बाई फुले का एक शिक्षक के रूप में सफर बहुत कठिनाइयों भरा रहा, जब उन्होंने स्कूल में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो तथाकथित समाज के ठेकेदारों ने इसका विरोध किया और इन्हे रोकने की हर संभव कोशिश करी परंतु ये जब नहीं रुकी तो ज्योतिबा के पिता को बोला कि महिला शिक्षा समाज के लिए अभिशाप है और ऐसा करने पर आगामी कई पीढ़ियां शोषण का शिकार रहती हैं, इस बात से डर कर ज्योतिबा के पिता ने फूले दंपति को रोकने कि कोशिश की परन्तु जब वो नहीं रोक पाए तो उन्होंने धमकी दी कि या तो घर छोड़ दो या ये पढ़ाने वाला कार्य, तो फूले दंपति ने घर छोड़ना स्वीकार किया परन्तु अपने लक्ष्य के आगे नहीं झुके।

इसके आलावा जब सावित्री बाई फूले स्कूल में जाती थी तो रास्ते में शरारती तत्व उन्हें परेशान करते थे उन पर पत्थर फेंकते यहां तक कि गोबर भी फेंकते थे जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते थे, परंतु सामने से उन शरारती तत्वों से यही कहती कि ” तुम्हारे ये प्रयास मुझे ज्यादा मजबूत करते हैं ,परमात्मा तुम्हारा भला करे” । इस वजह से सावित्री बाई को दो दो साड़ियां साथ लेके जाना पड़ता था ,एक वो पहन कर जाती थी और दूसरी साथ लेकर जाती थी, जिसे स्कूल में जाके पहनती थी क्यूंकि एक साड़ी रास्ते में शरारती तत्व गंदी कर देते थे।परंतु वो इन घटनाओं के बारे में घर पर ज्योतिबा को भी नहीं बताती थी फिर एक रोज़ ज्योतिबा को इस बार में पता चला तो उन्होंने अपने दो दोस्तों को सावित्री बाई के साथ जाने को कहा।

इन संघर्षों का सामना करते हुए समाज में परिवर्तन और नई चेतना लाने के लिए वो कविताएं भी लिखती थी,उनका पहला काव्य संग्रह ” काव्य फूले” नाम से 1854 में जब वो 23 वर्ष की थी तब आया, जैसे  उन्होंने अपनी एक कविता में महिला शिक्षा के बारे में लिखा है:- 

” स्वाभिमान से जीने हेतु, बेटियो पढ़ो लिखो खूब पढ़ो, 

पाठशाला रोज़ जाकर ,नित अपना ज्ञान बढ़ाओ

हर इंसान का सच्चा आभूषण शिक्षा है, 

हर स्त्री को शिक्षा का गहना पहनना है,

पाठशाला जाओ और ज्ञान लो”।

इन्होने शिक्षण पद्धति में भी सुधार करने के प्रयास किए , ज्यादा बच्चों को स्कूल की तरफ आकर्षित करने के लिए छात्रवृत्ति शुरू की। 

इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया गया वो ये था कि इन्होने विधवा महिलाओं के लिए अलग अलग जगहों पर केंद्र खोले जहां पर विधवा महिलाए रह सकती थी, पढ़ाई कर सकती थी और अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी। अर्थात समाज में महिलाओं से सम्बन्धित सभी कुरीतियों को ख़तम करने का हर संभव नए प्रयास किए गए।

1873 में अपने पति के साथ मिल कर “सत्यशोधक समाज” नामक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य लक्ष्य “सत्य चाहने वाले समाज के निर्माण” से था। इस संगठन का मूल सिद्धांत ‘ समानता की सिद्धांत ‘ था।

महिला सशक्तिकरण ,महिला शिक्षा और समाज में समानता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाली सावित्री बाई फूले का ऋण हम किसी भी प्रकार से चुका नहीं पाएंगे। उनके क्रांतिकारी और अहम योगदान के लिए ना केवल महिला वर्ग बल्कि पूरा भारत और विश्व उनका ऋणी रहेगा।

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By Avani Bansal & Radhika Ghosh

Introduction: An Intriguing Conversation

I was speaking to a colleague who trains judges. Reading one of my earlier pieces on the case for representative judiciary in India, she narrated to me an incident. She said all the judges of the Supreme Court had come for training and one could see that the two female judges were more or less by their own self. So even if a woman becomes a Supreme Court judge, should we assume that she will be treated alike and at par with male judges? She didn’t think so, having observed and worked closely with judges for a long time. But she probed me deeper – “why do you think that is the case? Why do most male judges have such a parochial view towards women judges?” While I was still thinking, she said – “One of the reasons could be that the wives of most of the judges, while educated they may be, do not work professionally. So judges are still accustomed to see women in a particular light.”

Now, I had never thought about the gender gap in Judiciary in this light. While we look at the statistics of the dismal number of female judges in India at subordinate judiciary level, High Courts and Supreme Court, we rarely investigate into how the subjective worldview of our own judges with a limited role for women in it, has a deep impact on promoting, and encouraging more women to join judiciary. While many judgements in India reveal the judges’ own view on the role of women, there is no basis to assume that the same male dominated judiciary will be encouraging of more women to sit next to them as colleagues.

Let’s Look At The Numbers

The Supreme Court was established in October 1935 and functioned as India’s federal court until it assumed its present form in January 1950. The initial strength of the judges was only eight — Chief Justice and seven puisne judges. As the number of cases increased, the number of judges also went up. Today, there are a total of 31 judges, including the Chief Justice of India. Since 1950, India’s Supreme Court has had 46 Chief Justices and 167 other judges.

There have been a total of eleven women judges in the Apex Court ever. Three of them sworn into the Supreme Court (SC) of India on Tuesday, August 31 2021. So along with J. Indira Banerjee there are now a total of four women judges in the Supreme Court who are currently serving. This constitutes to 11% of the strength of total Judges in Supreme Court.

In 17 states, between 2007 and 2017, 36.45% of judges and magistrates were women, researchers with the Judicial Reforms Initiative at Vidhi Centre for Legal Policy, a think tank, wrote in January 2020 in the Economic and Political Weekly (EPW). In comparison, 11.75% women joined as district judges through direct recruitment over the same period, according to data from 13 states.

The chart shows the serving women judges (in red), retired women judges (in lighter shade of red), serving men judges/Chief Justices (in grey) and retired men judges/Chief Justices (in light red) of the SC according to their year of appointment as of August 31. Only 11 of the 256 judges (4.2%) who have served/ are serving at the apex court were/are women. Four out of the 33 judges (12%) currently serving are women.

The share of women judges in High Courts was no better. The chart depicts the share of women among all HC judges as of August 1, 2021. Overall, women judges account for only 11% of HC judges. In five HCs, no woman served as a judge, while in six others, their share was less than 10%. The percentage of women judges at the Madras and Delhi High Courts was relatively high.

Women’s representation in the judiciary is slightly better in the lower courts where 28% of the judges were women as of 2017. However, it was lower than 20% in Bihar, Jharkhand and Gujarat. The map shows the State-wise % of women judges in the lower courts.

[Date available on: https://www.thehindu.com/data/only-11-women-supreme-court-judges-in-71-years-three-of-them-appointed-in-2021/article36272407.ece ]

And What About Trans Women, Dalit And Adivasi Women?

The gender gap in India is so wide that we are often talking of just ‘women’ representation without paying any attention to the inherent intersectionality debate. Women are not just one monolithic community in India. From all the eleven women who have made it as judges in the Supreme Court, there has been only one Muslim woman – J. Fathima Beewi and one practicing Christian – J. R Banumathi. There has been no dalit, or adivasi woman, and no woman representing the sexual minorities in India, including a trans woman. The intersectional representation has to be borne in mind because women representing different communities bring in perspectives which others cannot. As the International Commission of Jurists report – “Increased judicial diversity enriches and strengthens the ability of judicial reasoning to encompass and respond to varied social contexts and experiences. This can improve justice sector responses to the needs of women and marginalized groups.”

So What Explains Such A Gender Gap In Judiciary?

There are several systemic obstacles that prevent women from being equally represented in judiciary. First of all, there needs to be a clear vision of how much representation of women will be considered as adequate representation and given that women are half of the Indian population, unless there are 50 percent women judges at all levels of judiciary, we have no reason to be complacent. Having 11 percent women at HC and SC level and 36 percent women at district court level is just not good enough. We have to be convinced of raising this bar, before we start engaging in this debate.

Secondly, there is a need to revisit the rules that keep women out by appearing to treat them ‘equally’ without paying attention to the need for ‘equitable and not equal treatment.’ For example – an advocate must have a minimum of seven years of continuous practise to be eligible to be a district judge. “This could be a disqualifying criterion for many women advocates because of the intervening social responsibilities of marriage and motherhood that could be preventing them from having seven years of continuous practice,” said Diksha Sanyal, a researcher involved with the Vidhi Centre studies on this issue. While Article 233 of the Constitution provides that appointment as a district judge requires not less than seven years as an advocate, it is the Supreme Court that has interpreted it to mean ‘continuous practice’. Similarly, “the entire attitude towards women who work outside home must change,” said Justice Prabha Sridevan, a retired judge of the Madras High Court. For instance, she said that one of the reasons that reduces women to stay in power is the transfer of women magistrates every three years.

Third, we need to discuss the issue of reservation for women not just in Parliament but also in High Court and Supreme Court of India. “Reservation quota for women is perhaps just one among many factors that encourages and facilitates more women to enter the system. In states where other supporting factors are present in sufficient measure, women’s quotas perhaps help bridge the gap in gender representation,” noted the 2020 EPW special article.

Fourthly, we need to design the system in a way that incorporates the requirements of women who aspire to be judges. “A lot of female judges join the service very late, which makes their chance of making it to the high courts or Supreme Court bleak,” said Soumya Sahu, a civil judge in Madhya Pradesh. Women judges are not immune to the “leaking pipeline”, the term used to describe how many employed women quit the workforce mid-career when children face board exams and parents need additional care—jobs that fall to women. “A total reorientation of the way society thinks of family and marriage is needed,” said Justice Sridevan. “It becomes difficult if you think the woman is the sole nurturer.” To address these issues, we need to think of the challenges beyond conventional solutions that are discussed to reduce the gender gap. The gender gap in Judiciary is not separate from the gender gap that we see in all segments of society. So the need of the hour is to understand and address the requirements of women at all levels, which may require us to disrupt the current system of looking at things. Breaking the conventional ways may include more female voices at all levels of decision making and creating inclusive spaces where we don’t just engage in tokenism by appointment a few women.

Above all, what’s needed is self-reflection and being aware of our own mental barriers and perceptions regarding women and what they are capable of doing. Sometimes the attitude of judges towards female lawyers and judges may become apparent through small anecdotes that what statistics may reveal.

Justice Leila Seth, former chief justice of the Himachal Pradesh High Court and the first woman to become the chief justice of a state high court, said in a November 2014 interview with The Hindu – “In most cases, male lawyers or judges especially in upper Himachal had a feudal mentality. They were not used to a woman sitting on their head.”

Advocate Kiruba Munusamy shares an incident while in Madras High Court, where a judge commented about her short haircut, which she couldn’t tie. He said, “Your hairstyle is more attractive than your argument. Women having short hair and men having long hair, wearing studs have become a fashion these days but I don’t like it.” She replied that she has been keeping short hair since her school days. She also mentioned that she has migraine and can’t keep her hair tied for long, so she had it cut short. She then pointed out to him that there is no bar council rule or code that prescribes the hairstyle of women. His response was, “Of course, there are no rules. But I am just telling my opinion.” Kiruba was asked by other male lawyers who were present in the court room to apologise to the judge regardless of his comments. The advocate that day was insulted, mistreated and told to shut up by the judge even though she was the Petitioner’s counsel in a transwoman’s police appointment case.

While every female judge who makes it to the apex court serves as an inspiration for millions of young women, it is time that we think systematically about getting millions of girls as judges and lawyers in various courts and levels in our legal system. This will require shattering quite a few glass ceilings and setting examples through action, initiatives, policy, laws and attitudes, all of which begins with sombre reflection.

First Published here:

http://inspire.profcongress.com/inspireInside/?unique_id=perspectives_0001

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By Pooja Bhattacharjee

Capitalism is an economic system in which means of production are privately owned and the decisions with respect to production (what, how and when to produce) are largely determined by the forces of the free market that are largely based on profits. 

Capitalism structurally oppresses, restricts, and inhibits the access of marginalized individuals, minority communities, and differently abled persons by regulating the opportunities available to them. Based on such structures of inequities, it further exacerbates sexism, casteism, ableism, and racism. The commodification of women’s labour is at its peak, courtesy of the unequal power structures normalized by capitalism. 

Feminism is a socio-economic and political ideology focused on dismantling gender discriminatory structures. It’s about fighting for and creating equality and a good life for everyone, regardless of their sex, gender, race, ethnicity, education, income, religion, or where they live. These goals cannot be achieved in capitalism. Using minority communities and individuals to generate economic and social value in service of reinforcing inequitable social stratification, race and social difference generate economic and social value for feminism when women are lauded for “overcoming” struggles based on gender, race, disability, and so on to fit themselves into a one-size-fits-all notion of feminist progress. 

The focus for improving institutional sexism in the workplace is thus placed upon improving the gender pay gap. Solutions to alleviate the problem have been widely debated and disputed. Some argue that women should be remunerated for their ‘household chores’ (which would hardly serve to de-gender the concept of housework and thus maintains the sexist ideology that is associated with it); others say that working hours need to be more flexible to accommodate working mothers, while yet others argue men should simply help out more at home. Women on average do about twice as much housework as men. All of these arguments have their merits and de-merits but none of them really get to the crux of the issue.  In order to be paid the same as men, we first have to fight the institutional sexism which exists at almost every level of society. 

Many sectors such as automation, information technology and other outgrowths of capitalism are allowing women to compete and win in traditionally male-dominated fields. But observing that some women are quite empowered in capitalism does not imply that the path has been laid and that if we just follow it the goals of feminism will be reached. 

Further, capitalism has set up a system of high working hours for low wages for its labourers and has established a pre-set power role between the owner of the factors of production and the individuals who sell their labour. Given the inherently oppressive and exploitative nature that capitalism entails, and the toxicity that is involved with it, the skewed power relation is only amplified when a woman is selling her labour for which she is paid a wage that significantly undermines the value of contribution made by her. The problems associated with capitalism is particularly biased towards women, there’s always some achievements or standards that they are not meeting, or a role model that capitalism strives them to be. This article achieves to streamline a discussion around the so-called role fulfilment mechanisms which we have become so adept at.   

The Superwoman Effect

Superwoman – though a term associated with women empowerment and celebrates the achievements of women in corporate and on the domestic front, is often misused by capitalism and society to expect sacrifice from women. Gender, class and literature examines the superwoman phenomenon and the impact it has on the women and the stress level which is induced by capitalism. By definition, a superwoman is someone who, ‘takes on the roles of mother, nurturer and breadwinner out of economic and social necessity’.

The superwoman or supermom is associated with a woman who can juggle traditional role expectations associated with being a female and the role and expectations of career advancement and upward social mobility. In her book ‘The Second Stage’ (1981), Betty Friedan describes the superwoman expectation as the double enslavement of women by capitalism since it requires a sacrifice, either at home or work, to be a superwoman.  

Girlboss Culture

Girlboss is similar to Superwoman, it provides an aspirational narrative to the struggles. While it is a good thing to work hard and have dreams and work towards achieving your dreams; the idea of social change projected by capitalism through Girlboss defines the narrow constraints of capital accumulation and its associated preservation of hierarchies and inequities. Girlboss feminism emerges from colonial legacies and structures of power that are predicated on maintaining inequalities based on race, ability and normative gender expression. 

Success is the headliner of girlboss feminism. ‘The Girlboss Platform’, started in 2016, represents the cultural shift toward marketing personality as a component of successful capitalist subjectivities. It uses motivational content by merging personal and professional upgrades to attain success, the personal becomes a vital selling point in girlboss culture. A pattern of desirable personality traits emerges through the platform’s user engagement, highlighting the role of collective intelligence in shaping conceptions of the ideal empowered woman. 

Through these ideas of superwoman and girlboss, capitalism is selling this narrative claiming that anyone can attain wealth, regardless of gender, race, ability and so on – so long as you work hard, think positively and rise above any obstacles thrown at you. By leveraging mediated spaces to perpetuate such aspirational narratives, girlboss feminism naturalizes and obscures the conditions of severe inequality endemic to capitalism. 

In her analysis of beauty and lifestyle bloggers, Brooke Erin Duffy highlights the role of authenticity in capitalism. Duffy notes that authenticity represents the demands for self-promotion created by emotional capitalism, defined by Eva Illouz as ‘the complicated intersections of intimacy and political/economic models of exchange’. Girlboss users respond to emotional capitalism’s norms of engaging what is personal and intimate as modes of profitability. This profitability centres on reinforcing gendered expectations of women’s capacity for expressing vulnerability, pointing to how emotional capitalism operates through structures of gender essentialism. Women are expected to be vulnerable and emotional capitalism engages this norm as an opportunity for extracting value. Through the repetitive selling of their own relatability and authenticity, Girlboss users structure the marketing of personality traits as a key feature of gaining influence. 

Lastly, to overcome sexism it is necessary to combat this system as a whole, rather than focusing specific issues. The whole system must be critiqued and examined. The incredible technological and scientific advances of the past forty years could have been channelled toward dramatically reducing poverty, improving health care outcomes and the ecological sustainability of our production processes and ensuring security in the supply and distribution of clean water, nutritious food, and adequate housing. These are things that all people value. These are also things that would greatly empower women who suffer disproportionately from the lack of these things. 

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By Neha Bhupathiraju 

At a World Mental Health Day event at National Institute of Mental Health and Neurological Sciences (NIMHANS), Karnataka’s Health & Family Welfare Minister K. Sudhakar expressed his disappointment at the “paradigm shift in thinking” that women choose to stay single and childless. 

“(I’m) sorry to say this, a lot of modern women in India want to stay single. Even if they get married, they don’t want to give birth – they want surrogacy. So there is a paradigm shift in our thinking which is not good.”  He also said that western influence is the reason Indians also choose to not live with their parents. 

Social media is flooded with anger at the Minister’s bizarre remarks. A day after his remarks, he issued a clarification that he “had no intention to single out women”. “Through my address during the World Mental Health Day program at NIMHANS, I intended to send across the message on how our Indian family value system can address the mental health issues that we are facing today”. He also alleges that those remarks were only a part of his 19 minutes speech and are being taken out of context. 

His remarks are rather disappointing coming from the Health & Family Minister. The underlying principle behind (even his clarification!) is the notion that women are expected to be flag-bearers of the value system. It’s not uncommon for the word ‘modern’ to be used in a derogatory fashion – when modern often means, especially in a feminist context, somebody who stands up for themself or makes a choice about their own body. When will we stop vilifying those who dare to breakfree from the shackles of binary notions?

Women, not just in India but around the world, especially in US give a variety of reasons why they may choose to be single or not have kids. While some fear lack of support, some simply enjoy the independence. A lot of women have seen their mothers sacrifice their own lives to raise them up, a choice that they may not prefer to make. So the question is – “why should anyone except a woman or a couple in question, decide what’s right for her or them?” Well, the health minister certainly should not. This incident is also a reminder as to why representation matters and why we need women in decision making, otherwise there would be no recourse to laws, policies and opinion that are fundamentally androcentric.  

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Ekta Pandey

In the 3rd century AD, Kalidasa, one of the greatest writers of ancient India, made a reference to ‘dancing girls’ that were present in the prominent Mahakaal temple in Ujjain, in his work, Meghduta.

“Begemmed their hands, and their jingling navels please, though wearying the chowries and the dances. But shoot your raindrops through the nail marks, soothing, the courtesans will cast you sidelong glances, Their rows in unison as honey bees.”

These girls mentioned by him were known by many names- ‘Devar Adigalar’ in Tamil Nadu, ‘Basavi’ or ‘Jogini’ in Karnataka, ‘Mathangi’ in Maharashtra and most commonly, Devadasis. The term ‘Devadasi’ is a Sanskrit word which means ‘a female servant of God’. They were young girls who were dedicated their life to the service of temples. They had an upscale artistic tradition of dance and music, and were prevalent in the Southern Indian states of Karnataka, Andhra Pradesh, and Tamil Nadu. There is no definite origin of this tradition but it is estimated to have emerged somewhere between the 3rd and 12th century. They used to start at a very young age, and would spend their time learning traditions, rituals and focused on perfecting their arts. In fact, Bharatanatyam also is nothing but a modern incarnation of the Sadir dance performed by these women centuries ago. Devadasis were often referred to as a caste, but according to the Devadasis themselves, there is only a Devadasi way of life, and it’s not a caste. Some believe that the practice arose from the myth of Renuka, the wife of Jamadagni, who was beheaded by her son, Parasurama. It was during the Chola rule that the Devadasis were at the height of their powers and glory. The Devadasis were a professional, matriarchal, and traditional community that developed well-defined practices, customs, and traditions best suited to live their lives but they did not live their lives adhering to the normal rules of sexual morality as that of other Hindu married women, but it is important to notice that the only fact that they were married to a deity did not mean that they could be deprived of the regular pleasures of life: love, companionship, and child-bearing. There is the most common misconception that Hinduism is an extremely conservative religion with no room for  liberal views. One cannot understand the practices of the  Devadasis with such ethos.  Young sex workers, especially in third world countries are often painted as causalities of backward traditions, poverty, and victimization. These characterizations, although creating a tragic narrative that boosts sympathy, often fail to capture the actual complexities of the experiences of these girls. The Devadasi system, especially, is a victim of this twisted narrative. 

Kalidasa’s Meghduta made references to dancing girls, and several Puranas recommended the enlistment of singing and dancing girls during worship. The affluence and reputation of a temple was directly related to the number of Devadasis present. For instance, the Brihadeeshwarar Temple at Tanjore maintained over 400 such girls.The reason behind this practice seems more rooted in the South rather than the North of India is because of the destruction of temples by Muslim invaders.

It creates no doubt that the Devadasis brought in the two things that temples were in need of: money and publicity. The girls would find wealthy patrons and were invited to a large number of auspicious occasions. The concept of ‘dedication’ of a girl made it a symbol of prestige to sponsor her. Their mother and grandmother would arrange for a desirable man. There was an implied contract in place that the devadasi would not provide her offspring, nor any duties that a wife would usually have, and in return, her progeny would not lay any sort of claim on inheritance.

The Male Devadasis

There is also a section of the Devadasis that  is often overlooked. The lives of male Jogappas in the Hubli-Dharwad region of Northern  Karnataka is hardly discussed anywhere. Forced into believing that the goddess Yellamma has bestowed divine possession, the transition of a young boy into a Jogin is initiated by a set of  “incurable” physical ailments like rashes, foul odour, fits and even dreadlocks. They are considered serious symptoms of divine possession and neither the priest nor the local witch doctor was able to provide them a cure. The parents of the child ultimately turn to a place called Saundatti where these boys are taken into the “service” of the goddess.

Initially, they only offered their companionship to kings and other noblemen. As the years  passed by, they began offering services to the common public as well. Currently, Devadasi system is a misunderstood and deteriorated concept which has been reduced to a base of operations for human trafficking, abuse, prostitution and slavery. According to the National Commission for Women, there are 48,358 Devadasis in India.

The majority of active devadasis are in Karnataka, with over 22,491 individuals, Andhra Pradesh with 16,624 individuals, and Maharashtra with 2,479 individuals. Many of them belong to the scheduled caste community. Majority of them are very young(11 or 12 years of age.) These girls attain puberty at 12 or 13 years of age, and get their first sexual partner by the time they reach 15. They are clueless  about protection, making them vulnerable to sexually transmitted diseases.

Efforts by legislation

The real major change was brought by the Bombay Devadasi Protection Act of 1934. In Furtherance, the Madras Devadasi (Prevention of Dedication) Act,1947 and the Karnataka Devadasi (Prohibition of Devadasi) Act, 1982 came into existence. These Act deems dedications to be unlawful and penalizes any person who performs it. Any such person can be imprisoned for a term that can extend to 3 years and fine of Rs. 2000.  If the person is a parent or a relative the punishment increases to imprisonment for 5 years with  a minimum of 2 years and a maximum fine of Rs. 5000 with the minimum being Rs. 2000. It extends powers to the state government to make any rules regarding the same. The Karnataka Act provided significantly for the welfare, rehabilitation, custody and welfare for these Devadasis. This was followed by a similar enactment in Andhra Pradesh in 1988. However, the state government has only laid out the framework, and even now, there are no rules as to implementation. A study by NLSIU and Tata Institute of Social Sciences exposed the neglect and apathy shown by the government towards this disturbing practice that still haunts communities.

The people who force or encourage these young girl to become a Devadasi are mostly their own family members. Therefore, it is no surprise that the girls are unwilling to report their own family members. Even after a case is registered, it is highly unlikely that they will cooperate with the police, or the courts. Moreover, law enforcement also fails to take suo-moto cognizance on these issue.

Conclusion

A Devadasi is a woman who is raped even before she truly understands her own sexuality, who is robbed of her innocence, who leads a miserable life with no respect or love, and a woman who still struggles to maintain her dignity and self-respect in spite of the revulsion society shows towards her. For far too long, she has been living in the shadows, and has not been seen as a complete human being: one with hopes, dreams, and aspirations. They are a victim of circumstances and their current state does not mean that they had forfeited their right to dignity.

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Why the amended abortion law in India restricts access and fails to grant pregnant (women, transgender and nonbinary) persons, complete control over their reproductive choices.

Mani Chander

The Medical Termination of Pregnancy (Amendment) Bill, 2020 was approved by the upper house of the parliament and received presidential assent in March, 2021. Some of the amendments brought in by the new Act were hailed by many for further liberalizing access to abortion in India. On the other hand, some leaders of the opposition had voiced concerns, demanding a detailed scrutiny of the Bill by a parliamentary standing committee. The Bill, however, was passed without any further deliberation or amendments.

One of the key amendments brought by the Act was in terms of easing the process of approval by doctors. While the earlier law required one doctor’s approval for pregnancies up to 12 weeks and two doctors’ for pregnancies between 12-20 weeks, the new law requires only a single doctor’s approval for pregnancies up to 20 weeks. The approval of two doctors is now needed only for the 20-24 timeline reserved for abortion seekers of special categories such as rape or incest survivors. The upper gestation limit for abortion in cases of foetal disability has also been removed.

The other significant change introduced by the new Act was the mandatory constitution of a medical board in every State and union territory (UT), which would decide on pregnancies beyond 24 weeks in cases of foetal abnormalities. As per the amended act, the board would have one gynaecologist, one radiologist or sonologist, one pediatrician, and other members as prescribed by the respective state or UT.

Nearly six months since the new act came into effect, several issues around the revised mandate have come up, showing that the new law, though well intended, continues to restrict reproductive rights. 

The first obvious and fundamental drawback is that our lawmakers have failed to recognize that reproduction is not just a women’s issue. Seeing only women as natural mothers is exclusionary and deeply problematic as it ignores the fact that trans and non-binary persons can also become pregnant. It reinforces harmful stereotypes around reproduction and sexuality.

Furthermore, while the establishment of medical boards in every state and UT seems like a noble idea, ground reality points to its infeasibility. A recent report based on the Ministry of Health and Family Welfare’s Rural Health Survey, which analyzed district-wise availability of medical specialists, found that there is a severe shortage of doctors. As many as 82% of these posts for surgeons, obstetricians, gynaecologists, physicians and paediatricians lie vacant. In rural India, where 66% of the country’s population resides, there is a shortage of approximately 70%. While states like Arunachal Pradesh, Meghalaya, Mizoram and Sikkim revealed a 100% shortfall of pediatricians, others such as Tamil Nadu, Arunachal Pradesh, and Gujarat have recorded near-absolute absence of certain specialists in rural areas.

Besides, even if the state governments manage to set up the necessary medical boards, access will remain a challenge, particularly for those in remote areas. It is noteworthy that the new law fails to include any provision whatsoever for ensuring logistical or financial assistance to those who need to consult a medical board. Rather than ensuring access and convenience, forcing pregnant persons to run around in search of medical boards would create further hurdles for them.

Not to mention that these medical boards have no clear mandate, leaving the scope of their functions excessively wide. Absolute discretion when considering requests for abortion allows medical boards to venture into subjective issues such as viability of the foetus and possibility of corrective surgery. 

Time and again, courts have reiterated the right of a woman to control her body and fertility. In 2016, the Bombay High Court in a suo moto public interest litigation held that “the right to autonomy and to decide what to do with one’s own bodies includes whether or not to get pregnant and stay pregnant”. It flows logically, that any encroachment of bodily autonomy would also amount to infringement of privacy, as observed in the Puttaswamy judgment of the Supreme Court.

While restrictions on the fundamental right to privacy may be imposed on account of larger interests, they ought to be “just, reasonable, and fair.” It appears, however, that the amended Act, if challenged, would fail to satisfy this constitutional mandate.

Contrary to their own precedents upholding bodily autonomy, courts have sometimes rejected petitions seeking approval for abortions. The reason is that courts ultimately rely on the decision of the medical boards, while ignoring the advice of the woman’s own gynaecologist. For instance, the Supreme Court rejected the termination of a 27-week pregnancy even though the foetus had severe physical abnormalities, because the medical board had found that there was no physical risk to the mother. The same fate was met by a 25-year-old woman whose foetus was diagnosed with Arnold Chiari syndrome, an abnormality that leads to underdeveloped brain and distorted spine.

Moreover, the process of setting up medical boards and delayed decision-making has forced women to carry their pregnancies to term. In one case, an HIV-positive rape victim from Bihar, who was denied abortion when she was 18 weeks pregnant, was forced to give birth as a result of delay. While awarding compensation to the woman, the Supreme Court remarked, that “the fundamental choice (of termination of unwanted pregnancy) which is available in law was totally curtailed and scuttled, ..the entire action has caused her immense mental torture”. In another case, after the Supreme Court allowed abortion of a 13-year-old rape survivor, she ended up giving birth two days later. Bureaucratic delays coming in the way of women’s reproductive rights can hardly be considered just. 

In yet another striking suit, the top court refused to allow an abortion for a 10-year-old girl, allegedly raped by her uncle, because the medical board was of the opinion that termination would be “too risky”. What medical boards and courts seem to be ignoring is that in most cases involving children, the pregnancy itself is discovered too late because they are unaware of their condition. Yet, they are made to pay the price for no fault of their own.

The central argument is that medical boards and doctors continue to decide and make the final call. Leaving the decision to anyone other than the woman grossly undermines her dignity and agency, particularly when those assigned the task of decision-making are not bereft of their own personal and moral beliefs. 

India is considered to have a fairly progressive abortion law when compared to other countries, yet it is regressive in more than one way. While we still have a long way to go, we mustn’t hesitate to learn lessons from the rest of the world. Texas’ recent law which effectively bans abortions is a painful reminder that hard-won rights can be stripped away all too easily. 

We cannot be complacent, for we are not free until all of us are.

_______

*Views are personal. The author is a Delhi-based practicing lawyer who holds a special interest in gender justice. She holds a Master’s degree from the University of Virginia School of Law and is admitted to the Bar Council of India as well as the New York State Bar.

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राजेश ओ.पी.सिंह

एक अध्ययन के मुताबिक कूड़ा बीनने वालों में 80 फीसदी संख्या महिलाओं की है और ये सब महिलाएं दलित समुदाय से सम्बन्ध रखती है, जैसे कहा जाता है कि सारे दलित तो सफाई कर्मचारी नहीं है परन्तु सभी सफाई कर्मचारी दलित ही है। भारत में कोई महिला या पुरुष अपने काम की वजह से सफाई कर्मचारी नहीं है बल्कि वह अपने जन्म के कारण सफाई कर्मचारी है, भले ही वह ये काम करना चाहती/चाहता हो या नहीं । यहां यह सब जाति और पितृसत्तात्मक सोच के कारण है।

आधुनिकता व तकनीक से परे कूड़ा बीनना आज भी देश का सबसे कम वेतन वाला और सबसे ख़तरनाक काम है, जिसमे लगभग 600 सफाई कर्मचारी प्रतिवर्ष मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

सफाई करने वाली महिलाओं में लगभग 39 – 41 फीसदी वो महिलाएं हैं जिनके पति सफाई करते समय मर गए, उनके देहांत के बाद इन्हें अपने पति के स्थान पर बड़ी मुश्किलों से ये नौकरी मिली हैं । इन महिलाओं में केवल 0.03 फीसदी महिलाओं ने ही 10वीं तक की पढ़ाई की है। जब इन्हें नौकरी पर रखा जाता है तो क्या नियम व शर्तें होएंगी इसके बारे में इन्हें अनपढ़ता की वजह से कुछ भी जानकारी नहीं दी जाती और इससे इन महिला सफाई कर्मचारियों से कम वेतन पर ज्यादा घंटे काम करवाया जाता है। जिसका इनके स्वास्थ्य और परिवार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

सफाई करने वाली महिलाओं का जीवन विभिन्न चुनौतियों को एक साथ झेलता हुआ चलता है, सबसे पहले इन महिलाओं को नौकरी करने के साथ साथ अपने घर के सारे काम करने पड़ते है वहीं दूसरी तरफ घर की आजीविका भी इन्हे ही चलानी होती है,और बच्चों को पालना ,उनका ध्यना रखना ये सब कार्य भी इन्हे करने पड़ते हैं। क्यूंकि अधिकतर महिलाओं के पति या तो मर चुके होते हैं या फिर जो जीवित होते हैं उनमें से लगभग सभी के सभी अपनी कमाई का 65-70 फीसदी हिस्सा शराब व अन्य नशों में खर्च कर देते हैं ,इसलिए परिवार की सारी जिम्मेदारियां महिलाओं पर ही रहती है।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना काल में दिल्ली नगर निगम में मरने वाले कुल 94 कर्मचारियों में आधे से ज्यादा संख्या (49) सफाई कर्मचारियों की है। अब इन परिवारों में सारी जिम्मेवारियां घर की महिलाओं पर आ गई है अब या तो इस काम को वो खुद करेगी या फिर उनके बच्चे। यदि वो खुद करना शुरू कर देती है तो निश्चित रूप से बच्चों पर ध्यान देना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा, इस से बच्चों का पढ़ाई छोड़ना और अन्य कार्यों में संलिप्त होने की सम्भावना ज्यादा है या यदि बच्चे अपने पिता के बाद सफाई का काम शुरू करते है तो निश्चित रूप से उनकी पढ़ाई रुक जाएगी। ये व्यवस्था बहुत लंबे समय से चली आ रही है, अब इसमें सुधार होना चाहिए क्योंकि बिना किसी सुधार के इनकी आने वाली पीढ़ियां भी अनपढ़ रह कर इसी काम में संलिप्त रहेगी। हालांकि सरकार ने कोरोना में मरने वाले इन सफाई कर्मचारियों के परिवार को एक एक करोड़ रुपए और एक नौकरी देने का वादा किया है परन्तु ये अभी एक दो लोगों को ही मिला है। 

अब प्रश्न ये उठता है कि इतनी बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारियों कि आकस्मिक मृत्यु क्यों हुई? इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण ये है कि कोरोना के समय में जब हम सब लोग घरों में बैठे थे, तब इन सफाई कर्मचारियों को अपना जीवन दांव पर लगाकर प्रतिदिन सफाई करने के लिए घरों से निकलना पड़ रहा था, वहीं 93 फीसदी सफाई कर्मचारियों ने माना कि सरकार की तरफ से उन्हें ना तो मास्क मिले, ना सेनेटाइजर और ना ही पीपीई किट। प्रोटेक्शन के बिना कार्य करते हुए कोरोना संक्रमण ने इन्हे अपनी चपेट में ले लिया जिस से बड़ी संख्या में इन्हे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है। 

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने एक रिपोर्ट में दावा किया है कि सामान्य तौर पर एक सफाई कर्मचारी की मृत्यु 60 वर्ष की उम्र से पहले ही हो जाती है, अर्थात सफाई कर्मचारियों कि औसत उम्र 60 वर्ष से कम है। इसके पीछे मुख्य कारण ये है कि सफाई के क्षेत्र में आधुनिकता के समय में भी तकनीकों का अभाव है और इसके साथ साथ सफाई कर्मचारी को अपने पूरे जीवन गंदी हवा में सांस लेना पड़ता है, ऐसे क्षेत्र जहां से आम महिला या पुरुष गुजरे तो भी उन्हें अपनी नाक बंद करनी पड़ती है, परंतु उस बदबूदार जगह पर इन सफाई कर्मचारियों का जीवन गुजरता है। गन्दी हवा में सांस लेने से इन्हे सांस के अनेकों बीमारियों से संक्रमित होना पड़ता है। इसके साथ साथ हमने पाया है कि प्रत्येक शहर या गांव के किसी कोने में इन लोगों को झुगी झोंपड़ियों में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है, जहां पर ना तो पानी की व्यवस्था होती है, ना बिजली की और ना ही शौचालयों की। गन्दा पानी पीने से इन्हे फेफड़ों और पथरी की समस्या से जूझना पड़ता है। शौचालय ना होने कि वजह से इन्हें घंटो घंटो तक प्राकृतिक दवाब की रोकना पड़ता है, जिस से पेट की बीमारियों का खतरा निरन्तर बना रहता है। इन कर्मचारियों में महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा नाज़ुक है ,क्यूंकि इन्हे ज्यादा कार्य करने की वजह से व सही खान पान ना होने से और काम उम्र में शादी और मां बन जाने से इनके शरीर में कमजोरी रहती है, जिस से ये बहुत कम उम्र में ही बूढ़ी और असहाय दिखने लगती है। 

जिन महिलाओं के पति नहीं है उन्हें अपने दिन के लगभग 16 से 18 घंटे कार्य करना पड़ता है। एक सफाई कर्मी महिला सुबह 5 बजे उठ कर खाना बना कर काम पर निकल जाती है जहां सात बजे से दस बजे तक सफाई करने के बाद 10.30 बजे तक घर पहुंचती हैं इसके बाद घर की सफाई, कपड़े धोना, दोपहर का खाना, नहाना आदि में उन्हें 4 बज जाते हैं, इसके बाद कुछ शाम को भी सफाई करने जाती है तो उन्हें कम से वापिस आकर रात का खाना बनाने में 9 बज जाते है और 11 बजे तक सब काम निपटा कर सो पाती हैं, इस थकान भरे दिन में वे अपने बच्चों और खुद के स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान नहीं रख पाती और उसका नुकसान उनकी पूरी पीढियों को भुगतना पड़ रहा है।

इसके लिए सरकार द्वारा कोई विशेष उपबंध और तकनीकों का प्रबन्ध करने की आवश्यकता है ताकि इन सफाई कर्मचारियों की स्थिति में सुधार आए और इनके बच्चे स्वस्थ रह सकें और उन्हें किसी मजबूरी में पढ़ाई ना छोड़नी पड़े।

Image Courtesy: BBC

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By Rajesh Singh

कोरोना महामारी के चलते जब सारे शैक्षणिक संस्थान बन्द है तब शिक्षा का जो स्वरूप बदला है, वह ना तो हमारे देश के छात्रों और ना ही छात्राओं के लिए अच्छा है, क्योंकि इसमें ना तो परस्पर क्रिया है और ना ही सहभागिता। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) के अनुसार भारत में लॉकडाउन के कारण लगभग 32 करोड़ छात्र छात्राओं की पढ़ाई रुकी है, जिसमे लगभग 15.81 करोड़ केवल लड़कियां हैं।

कोरोना महामारी से शिक्षण संस्थान मुख्य रूप से स्कूलों के बंद होने से लड़कियों (खासकर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली) को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। अब जब स्कूल जाना नहीं तब उन पर घर के कार्यों का बोझ बढ़ा है I हालांकि पहले भी घर के कार्यों में वो अपना योगदान देती थी, परंतु पहले ये होता था कि सुबह स्कूल जाना है, वहां 6 घंटे रहना है, स्कूल से आकर स्कूल का कार्य करना है, इसमें उनका काफी वक्त लग जाता था जिसके चलते उन्हें घर के सारे कार्य नहीं करने पड़ते थे I परंतु अब सुबह से लेकर शाम तक घर का सारा कार्य उन्हें करना पड़ता है I घर में बड़े बुजुर्ग भी ये कहते हैं कि जब स्कूल नहीं जाना तो कम से कम घर के कार्य करने ही सीख जाओ। इसके साथ ही प्राथमिक स्कूल की बच्चियां जिन्होंने अभी स्कूल जाना शुरू किया था, अभी सीखना शुरू किया था,की तरफ किसी का कोई ध्यान नहीं जा रहा, उनका भविष्य अंधकार में धकेला जा रहा है I आमतौर पर जब कोई इंसान कुछ सीखना शुरू करता है तो उसे अभ्यास की ज़रूरत होती है, यदि कोई चीज़ सीखी हो और उसका अभ्यास ना किया जाए तो बहुत जल्दी वो चीज़ भूल भी जाते हैं और बच्चों जिन्होंने अभी अभी सीखना शुरू किया है उनके लिए सीखी हुई चीजों का अभ्यास करना ज्यादा महत्वपूर्ण हैI 

परंतु अब जब पिछले 15 महीनों से स्कूल बंद है तब कैसे छोटे बच्चे घर में अभ्यास करें? हो सकता है कि कुछ परिवार अपने बच्चों को प्रतिदिन कुछ पढ़ा कर अभ्यास करवा पाएं पंरतु लगभग 70 फीसदी परिवार ऐसे है जो दिहाड़ी मजदूरी करके अपना और परिवार का पेट पालते हैं, उनके पास इतना वक्त नहीं होता कि वो अपने बच्चों को पढ़ा पाए I इनमे से भी अधिकतर माता पिता खुद अनपढ़ है तो वो कैसे अपने बच्चों को कुछ सीखा पाएंगे और अगर बच्चा लड़की है तो उसपर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता I यदि ट्यूशन भी लगाना हो तो आम जन लड़कियों की बजाए लड़कों को ज्यादा तरजीह देते हैं। इसके साथ ही जो लड़कियां कक्षा 9 या 10 में पढ़ती थी उनकी शादियां हो रही है जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से बड़े बदलाव के दौर में जीना पड़ रहा है।

यूनेस्को की शिक्षा विभाग की सहायक महानिदेशक “स्टेफेनिया गियनिनी” ने पिछले वर्ष कहा था कि इस महामारी के कारण शैक्षणिक संस्थान बंद होना लड़कियों के लिए बीच मे ही पढ़ाई छोड़ने की चेतवानी है। इससे शिक्षा में लैंगिक अंतर जहां और बढ़ेगा वहीं विवाह की कानूनी उम्र से पहले ही लड़कियों की शादी की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

सरकार ने हालांकि शिक्षा बिल्कुल ना रुके इसके लिए ऑनलाइन शिक्षा शुरू की, परंतु भारत में पर्याप्त संख्या में ना तो ऑनलाइन शिक्षा के लिए यंत्र हैं और ना ही आम जन के पास इन्हें चलाने की कला। लोकनीति सीएसडीएस ने अपनी 2019 की रिपोर्ट में बताया कि ग्रामीण क्षेत्रो मे केवल 6 फीसदी परिवारों में और शहरी क्षेत्रों में 25 फीसदी परिवारों के पास कंप्यूटर है। और केवल एक तिहाई घरों में ही स्मार्ट फोन है, इसमें भी अधिकतर घरों में एक ही स्मार्टफोन है, जिसे पूरा परिवार प्रयोग करता है, और ये फोन घर के मुख्य व्यक्ति के पास रहता है, वो जब घर होता है तभी बच्चे उसे प्रयोग कर सकते हैं, और बच्चों में भी लड़कियों की बारी लड़कों के बाद में आती है। 

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय ने अपनी 2017-2018 की रिपोर्ट में कहा था कि भारत में केवल 24 फीसदी परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। अर्थात् 70 फीसदी परिवारों के पास ना तो कंप्यूटर है ना ही स्मार्टफोन और ना ही इंटरनेट और इसके साथ साथ घरों में ना तो पर्याप्त जगह है जहां पर बैठ कर शांति से बच्चे पढ़ सके और ना ही ऐसा माहौल जिसमे कुछ सीखा जा सके तो इस दौर में ऑनलाइन शिक्षा कैसे सम्भव है? सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये भी है कि ग्रामीण परिवेश में रहने वाले अधिकतर लोगों को सोशल मीडिया चलाना ही नहीं आता I दूसरा जो काम स्कूल द्वारा भेजा जाता है उसे बच्चे समझ ही नहीं पाते कि इसे करना कैसे है, उन्हें बताने वाला कोई नहीं है, और फोन जब शाम को घर आता है तब उसकी बैट्री लगभग खत्म होने को होती है और ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली भी 24 घंटे उपलब्ध नहीं होती I इस प्रकार ऐसे अनेकों कारण है जिनकी वजह से ग्रामीण बच्चों और खासकर लड़कियों की पढ़ाई छूट रही है। अब उन्हें वापिस मुख्यधारा में लाना अपने आप में एक चुनौती है।

“दिल्ली आईआईटी की प्रोफेसर डॉ. रीतिका खेड़ा ने कहा है कि ऑनलाइन शिक्षा गरीबों के बच्चों के साथ भद्दा मज़ाक है”। 

यूनिसेफ ने प्राथमिक शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण व प्रभावशाली बताया है और कहा है कि जब भी लॉकडाउन जैसा कदम उठाना हो तब प्राथमिक स्कूलों को सबसे बाद में बंद करना चाहिए और जब सब कुछ खुलने लगे तो प्राथमिक स्कूलों को ही सबसे पहले खोलना चाहिए। क्यूंकि हम देखते है की घर के बड़े महिला पुरुष अपने अपने कार्यों को करने के लिए बाहर आते जाते रहते हैं इसलिए यदि वायरस आने का उन्हें कोई खतरा नहीं है तो बच्चों को खतरा कैसे हो सकता है। दूसरी सबसे खास बात ये है कि छोटे बच्चों में संक्रमण का खतरा कम है और इसके साथ साथ यदि प्राथमिक स्कूलों को लंबे समय तक बन्द रखा जाता है तो छोटे बच्चे कुछ भी संख्या या शब्दों को सीख नहीं पाएंगे, जिससे आने वाले समय में उन्हें भारी समस्याओं को सामना करना पड़ेगा। परंतु भारत में अब जब सब खुल चुका है तब कक्षा 9 से 12 तक के स्कूल सबसे पहले खुलने शुरू हुए हैं, जबकि होना इसका उल्टा चाहिए था क्यूंकि इन बड़े बच्चों को कम से कम लिखना पढ़ना तो आता ही है इसलिए इनका जितना नुकसान होना था वो हो चुका परंतु छोटे बच्चों का नुकसान तो प्रतिदिन हो रहा है। 

और हम देखें कि यदि छोटी बच्चियों को पढ़ने का अवसर नहीं मिला तो निश्चित रूप से उनकी शादी भी कानूनी उम्र से पहले ही होएगी, उसके बाद उन्हें शारीरिक और मानसिक तनाव का सामना भी करना पड़ सकता है और अनपढ़ता के दौर में शादियों में एक लड़की देके दूसरी लड़की लेने का प्रचलन भी बढ़ने की सम्भावना है। इसलिए सरकार को लड़कियों व उनके भविष्य और एक बेहतर भारत के निर्माण को ध्यान में रखते हुए सारे शिक्षण संस्थान खोल देने चाहिए और ऑफलाइन शिक्षा पुन: शुरू करनी चाहिए क्योंकि कोई भी देश लड़कियों को मुख्यधारा में शामिल किए बिना ना तो अपना विकास कर सकता है और ना ही वहां सभ्य समाज का निर्माण हो सकता है।

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