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राजेश ओ.पी. सिंह

नब्बे के दशक में जब बहुजन समाज लोगों में इस बात की जागरूकता आई कि संख्या में तो वो ज्यादा है परन्तु सत्ता में उनकी भागीदारी नगण्य है, तब एक नारा “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” लगना शुरू हुआ। ऐसे अनेकों नारों व संघर्षों से बहुजन समाज ने अपने लोगों को एकजुट करके सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयास शुरू किए और काफी हद तक कामयाब भी हुए। इस प्रकार के नारों और संघर्षों की ज़रूरत महिलाओं को भी है, क्यूंकि महिलाएं संख्या में तो पुरुषों के लगभग बराबर है परन्तु सत्ता में उनकी भागीदारी ना के बराबर है। भारत में महिलाओं की स्थिति में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं, पिछले कुछ दशकों में उनकी सामाजिक स्थिति और अधिकारों में काफी बदलाव आए हैं परन्तु राजनीतिक प्रतिनिधित्व (सत्ता की भागीदारी) की स्थिति में कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला है। भारतीय राजनीति में आज भी आम आदमी की बात होती है, आम औरत के बारे में कोई बात नहीं करता, सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे में महिलाओं के मुद्दे सबसे अंत में आते हैं।


“इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन रिपोर्ट” जिसमे विश्व के निम्न सदनों में महिलाओं की संख्या के अनुसार रैंकिंग तय की जाती है, 2014 के आंकड़ों के अनुसार 193 देशों की सूची में भारत का 149 वां स्थान है, वहीं पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश जिन्हें हर कोई महिला विरोधी मानता है, जहां पर शासन कभी लोकतंत्र तो कभी सैनिकतंत्र में बदलता रहता है, इन देशों ने क्रमशः 100 वां और 95 वां स्थान प्राप्त किया है।


भारत में पहली लोकसभा (1952) चुनाव में महिला सांसदों की संख्या 22 (4.4%) थी, वहीं 17वीं लोकसभा (2019) चुनावों में ये संख्या 78 (14.39%) तक पहुंची है, अर्थात महिला सांसदों की संख्या को 22 से 78 करने में हमें लगभग 70 वर्षों का लंबा सफर तय करना पड़ा है।
राज्य विधानसभाओं में भी महिला प्रतिनिधियों की स्थिति नाजुक ही है, जैसे हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से यदि हम केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के चुनावी नतीजों का अध्ययन करें तो इनमे महिला विधायकों की संख्या केवल 9.51 फीसदी है। केरल राज्य, जहां बात चाहे स्वास्थ्य की करें या शिक्षा की करें, हर पक्ष में अग्रणी है, परंतु यहां कुल 140 विधानसभा सीटों में से केवल 11 महिलाएं ही जीत पाई हैं। वहीं तमिलनाडु जहां जयललिता, कनिमोझी जैसी बड़े कद की महिला नेताओं का प्रभाव है यहां 234 विधानसभा सीटों में से केवल 12 सीटें ही महिलाएं जीत पाई हैं। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल जहां महिला मुख्यमंत्री है वहां पर स्थिति थोड़ी सी ठीक है और 294 में से 40 महिलाओं ने जीत दर्ज की है। इसमें हम साफ तौर पर देख सकते है कि महिला पुरुषों की संख्या में भारी अंतर है।

संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत जैसे देशों में जहां महिलाओं की सत्ता में भागीदारी बहुत कम है और यदि ये गति ऐसे ही चलती रही तो इस पुरुष – महिला के अंतर को खत्म करने में लगभग 50 वर्षों से अधिक समय लगेगा।


सक्रिय राजनीति में महिलाओं की दयनीय स्थिति के लिए केवल राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार नहीं है, बल्कि हमारा समाज भी जिम्मेदार है, जो महिलाओं का नेतृत्व स्वीकार नहीं करता। जितनी महिलाएं राजनीति में हैं उनमें से 90 फीसदी महिलाएं राजनीतिक परिवारों से सम्बन्ध रखती है और इन्हें भी मजबूरी में राजनीति में लाया गया है जैसे हम हरियाणा की प्रमुख महिला नेताओं – कुमारी शैलजा, रेणुका बिश्नोई, किरण चौधरी, नैना चौटाला, सावित्री जिंदल आदि, की बात करें तो पाएंगे कि ये सब अपने पिता, ससुर या पति की मृत्यु या उपलब्ध ना होने के बाद राजनीति में आई है, शैलजा जी ने अपने पिता के देहांत के बाद उनकी सीट पर उपचुनाव से राजनीति में प्रवेश किया, सावित्री जिंदल और किरण चौधरी अपने पति की मृत्यु के बाद उनकी जगह पर चुनाव लडा, रेणुका बिश्नोई अपने ससुर जी के देहांत के बाद राजनीति में आई, वहीं नैना चौटाला अपने पति के जेल में होने के बाद उनकी सीट से चुनाव लड़ कर राजनीति में आई। इस से स्पष्ट होता है कि महिलाएं चुनाव लड़ती नहीं बल्कि उन्हें मजबूरी में लड़वाया जाता है। चुनावों में महिलाओं को स्टार प्रचारक के तौर पर प्रयोग किया जाता है, महिलाओं के लिए अनेकों योजनाएं घोषित की जाती है परन्तु टिकट नहीं दिए जाते।


महिलाओं पर उनकी पहचान, उनके रंग रूप, उनके शरीर की बनावट से लेकर उनके कपड़ों तक पर टिका टिप्पणी होती है। जैसे शरद यादव ने राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए कहा कि अब आप ज्यादा मोटी हो गई है, अब आपको आराम करना चाहिए, वहीं कुछ वर्ष पहले एक वामपंथी नेता ने ममता बनर्जी के लिए कहा कि ये लाल रंग से इतनी नफरत करती हैं कि अपने मांग में सिंदूर नहीं लगाती। अवसरवादिता और अति पुरुषवादी राजनीति, महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ने नहीं दे रही।


वहीं सीएसडीएस ने अपने एक सर्वे में पाया कि महिलाओं की राजनीति में कम संख्या के पीछे अनेक कारण है जैसे 66 फीसदी महिलाएं इसलिए राजनीति में नहीं आती क्योंकि उनकी निर्णय लेने की शक्ति नहीं के बराबर है, वहीं 13 फीसदी महिलाएं घरेलू कारणों से, 7 फीसदी महिलाएं सांस्कृतिक कारणों से, और कुछ राजनीति में रुचि ना होना, शैक्षिक पिछड़ापन असुरक्षा का भय, पैसे की कमी आदि।


एक कारण और भी है कि महिलाएं ही महिला उम्मीदवार का समर्थन नहीं करती, जैसे कि हम देखें भारत में 73 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पर महिलाओं के वोटों की संख्या पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है, परंतु इन 73 में से केवल 3 सीटों पर महिला सांसद चुन कर आई है, अर्थात जहां महिलाओं के वोट ज्यादा है वहां भी 96 फीसदी सीटें पुरुष उम्मीदवारों ने जीती हैं।


कई जगहों पर महिलाएं ही महिलाओं को विरोध करती नजर आती है जैसे श्रीमती सोनिया गांधी के लिए सुषमा स्वराज ने कहा था कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनी तो मैं अपना मुंडन करवा लूंगी, भाजपा की एक अन्य नेता शायनी एन.सी. ने एक बार मायावती पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मायावती महिला है भी या पुरुष। तो महिलाओं पर इस स्तर की घटिया टीका टिप्पणी न केवल पुरुष करते है बल्कि महिलाएं भी करती हैं।


सत्ता में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए महिला नेता भी ज़िम्मेदार है, जैसे कि उतरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान आदि राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री रहीं है या आज भी अपने पद पर बनी हुई हैं, परन्तु इन राज्यों में भी महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नगण्य ही है, इसका एक कारण ये है कि महिला नेता भी महिलाओं के लिए कार्य नहीं करती, महिलाओं को राजनीति में जगह नहीं देती, यदि इन मजबूत महिला नेताओं ने महिलाओं के लिए राजनीति का प्रवेश द्वार खोला होता तो शायद आज ये और भी ज्यादा मजबूत नेता होती।


अब असल सवाल ये है कि सत्ता में महिलाओं की भागीदारी को कैसे बढ़ाया जाए? इसके लिए सबसे उपयुक्त समाधान आरक्षण को माना जाता है, और महिला आरक्षण के संबंध में भारतीय संसद में 1996 से कई बार बिल लाया गया परन्तु अभी तक पास नहीं हो पाया है I असल बात तो ये है कि राजनीतिक दलों की इच्छा ही नहीं है कि महिलाओं को सत्ता में भागीदारी दी जाए क्योंकि यदि वो असल में महिलाओं की सत्ता में  भागीदारी चाहते तो सबसे पहले अपने पार्टी के संगठन में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देते और यदि महिलाओं को मुख्य संगठन में उचित प्रतिनिधित्व मिलता तो शायद उनके लिए अलग से महिला मोर्चा या महिला विंग बनाने कि जरुरत नहीं पड़ती I हम देखते है की इन महिला मोर्चा या विंग की पार्टी के निर्णयों में कोई भूमिका नहीं होती। ये मोर्चे या विंग अपने सदस्य महिलाओं को भी सत्ता में भागीदारी नहीं दिलवा पाते तो आम  महिला को कैसे दिलवा पाएंगे।
वहीं एक सवाल ये भी है कि क्या आरक्षण देने से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है? क्यूंकि आरक्षण से सदनों में महिलाओं की संख्या तो बढ़ जाएगी ,परंतु क्या महिलाएं निर्णय ले पाएंगी, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। जैसे यदि हम देखें कि पंचायतों में 1993 से महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं, महिलाएं सरपंच या प्रधान तो बन जाती है परन्तु सारे निर्णय उनके घर के पुरुष ही लेते हैं। उनका केवल नाम होता है।


अंत में हम कह सकते हैं कि महिलाओं की सत्ता में भागीदारी तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब उन्हें सभी दलों में उचित स्थान व पद मिले और साथ में निर्णय निर्माण की शक्ति मिले क्यूंकि बिना निर्णय निर्माण की शक्ति के महिलाएं चुनाव जीत कर भी कुछ नहीं कर पाएंगी। परंतु इस सब के बावजूद खुशी की बात ये है कि अब महिलाओं ने मतदान के लिए घरों से बाहर निकलना शुरू किया है, 1952 पहली लोकसभा में पुरुषों व महिलाओं के मतदान में 17 फीसदी का अंतर था, वहीं 2019 के सत्रहवीं लोकसभा में पुरुष महिला का ये अंतर घट कर 0.4 फीसदी रह गया है।

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By Srinivas Rayappa

“Having a sister is like having a best friend you can’t get rid of. You know whatever you do, they’ll still be there.” – Amy Li

Bebe, Heather, Mimi and Laurie – popularly known as The Brown sisters have shown that sisters can indeed be best friends for life, through a very unique experiment – that although they had stumbled upon to pass boredom, eventually became an annual ritual that has continued for the last 40 years.  

Nicholas Nixon met BeBe in 1970 and they were married the following year. Nixon was 21, and BeBe was 20. They would usually spend the weekends with BeBe’s parents and that’s where this magnificent idea originated. A single photo of BeBe and her three sisters (Mimi, Laurie, Heather) taken back in the August of 1974 to bide boredom, turned into a long term project for Nixon with the sustained co-operation of the four sisters. Even though the first photograph was not upto his expectations, the idea continued to linger in his mind before it metamorphosed into an annual affair.

A year later, at the graduation of one of the sisters, while readying a shot of them, Nixon suggested that the four sisters line up in the same order that they had done the previous year. After he saw the image, he asked them if they might do it every year and they seemed to concur with him on the idea. It’s been 40 years since and the sisters have met every single year for this photo-event. This long photo-journey stands testament to the power of one simple yet great idea and the endurance of sisterhood.

For 40 years none of the sisters have missed this annual ‘photo ritual’ event, which emphasizes the strong bond they have for each other, which would be what most families strive for. When the first photograph was taken Mimi was 15, Laurie 21, Heather 23, and BeBe 25. Despite passage of 40 years since, nothing seems to have changed between the sisters as they still seem to lean on each other with the same fond affection as the first, in each and every photograph.

What stands out in each of the photos is that the sisters have a rather serious look but the attitude they wear is unparalleled. Staring straight into the photographer’s lens, they stand closely in a loving embrace which illuminates the sense of sisterhood and unity. The sisters don’t seem to be perturbed either by the passage of time, life’s transitions, changing seasons or their ageing process. The location seems totally unimportant under the circumstances.

The consistency in the order in which the sisters pose for the camera is indeed noticeable – left to right, Heather, Mimi, BeBe and Laurie. Nixon consciously chose to use a 8x10in view camera on a tripod and black-and-white film. It has been that way ever since.

The natural light, the simplicity, the casual postures, unfussy preparations and glamour-neutral attitudes are the highlights of all the photographs. Bebe Nixon in an interview explained the secret behind these simple yet powerful portraits – “We sisters never discussed what we are going to wear. We just wore what we felt like wearing that day.”

Had the sisters decided to start a rock band these black and white photographs would have probably formed the ideal CD cover for their albums.

Pursuing the whole project always rested on the idea of mortality. What if one of the sisters die? Would Nixon still be enthused to take this annual ritual forward? The obsessive photographer that he is, Nixon explains “We joke about it. But everybody knows that certainly my intention would be that we would go on forever, no matter what. To just take three, and then two, and then one. The joke question is: what happens if I go in the middle. I think we’ll figure that out when the time comes.”

The series of portraits have been unveiled at Fraenkel Gallery booth at Paris Photo and Museum of Modern Art, New York, coinciding with the museum’s publication of the book “The Brown Sisters: Forty Years”.

Nicholas Nixon, who grew up a single child, has been especially intrigued by the endurance of sisterhood and the deep emotional connect among the sisters which enthused him to pursue this ritual for the last 40 years. The cumulative effect of this 40 year journey is indeed emotional, dizzying, nostalgic and sends out a powerful message to all the sisters across the globe. Also, the extraordinary cumulative power that rests on the photographer’s singular ability to capture the passage of time and, with it, human ageing, emotions and the lurking shadow of mortality, is indeed laudable.

In an era where siblings hardly meet or meet via video conference, the life long journey of the Brown sisters is a lesson on the paramountcy of togetherness and bonding.

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राजेश ओ.पी. सिंह

भारत में आज भी कुल माइग्रेशन का 46.33 फीसदी शादियों के द्वारा हो रहा है और इस माइग्रेशन में 97 फीसदी हिस्सा केवल महिलाओं का है जिन्हे शादी करके एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है I इस माइग्रेशन से इन महिलाओं पर ना केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रभाव पड़ता है, बल्कि नई जगह पर रसने बसने में लंबा वक्त लग जाता है और जब तक इन महिलाओं को नई जगह पर रहने में सुविधा होने लगती है तब तक इनमें से लगभग दो तिहाई महिलाएं मां बन चुकी होती है I इस से इन पर दोहरी जिम्मेवारी आ जाती है, ये खुद के बारे में सोचना बन्द कर देती है और सारी उम्र जिम्मेवारियों के भार में गुजार देती है।


शादी की व्यवस्था किस लिए बनाई गई? इस पर अलग – अलग समयों में अलग – अलग अवधारणाएं प्रचलित रही हैं। जैसे 15 वीं – 16 वीं शताब्दी में शादी को प्रकृति का नियम बताया जाता रहा I उसके बाद कुछ विचारकों ने इसे  ‘सम्पत्ति का स्थानांतरण’ कहा।
अभी हाल ही के वर्षों में शादी को ‘बस जाने का’ अर्थात (सेटल) होने का सबसे उपयुक्त रास्ता बताया जाता है, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों को लगता है कि शादी एक जिम्मेवारी है इसे निभाना ही पड़ता है, कुछ को लगता है कि शादी पसंद और प्यार कि वजह से हो रही हैं। परन्तु शादी के ये प्रचलित प्रतिमान ज्यादा सटीक नहीं बैठ रहे।


अभी हाल ही में “लोकनीति सीएसडीएस” के यूथ स्टडीज ने 2007-2016 तक एक दशक में युवाओं के शादी को लेके विभिन्न अवधारणाओं को खोजने की कोशिश की है तथा इस रिपोर्ट में “लोकनीति सीएसडीएस” ने बताया कि इस दशक में युवा कम उम्र में शादी नहीं कर रहे है, अर्थात युवा अब शादियां लेट कर रहे हैं I इसके पीछे अनेक कारण हो सकते है, इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उच्च शिक्षा, उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले युवा जल्दी शादी नहीं कर रहे क्योंकि उन्हें अपना अध्ययन पूरा करने में लंबा समय लग जाता है और जब तक अध्ययन पूरा नहीं होता तब तक वो शादी नहीं करते।


वहीं इस रिपोर्ट से पता चलता है कि लोग शादी अपनी पसंद से या प्यार के लिए नहीं कर रहे हैं, क्यूंकि शादीशुदा लोगों में केवल 6 फीसदी और बिना शादी वालों में ये आंकड़ा केवल 12 फीसदी है, अर्थात केवल 6 फीसदी लोग ऐसे है जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद से शादी करी है, वहीं केवल 12 फीसदी लोग ऐसे है जो अपनी पसंद से शादी करना चाहते है।
दूसरी तरफ शादियों में जाति और धर्म का सबसे ज्यादा प्रभाव देखने को मिला है I केवल 33 फीसदी युवा ही अंतर-जातिय विवाह को सही मान रहें हैं, और दूसरे धर्म मे शादी को लेके ये आंकड़ा केवल 28 फीसदी है, अर्थात लगभग दो तिहाई युवा केवल अपनी जाति और धर्म मे शादी करना चाहते हैं I इन आंकड़ों से हम अनुमान लगा सकते है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी भारतीय युवा जातिय पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाया है।


बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर ने 1936 में अपने “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” नामक भाषण में जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए ‘अंतर-जातिय’ शादियों को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना था, परंतु उनकी बात पर किसी ने आज तक अमल नहीं किया है। इन आंकड़ों से भी स्पष्ट होता है कि भारतीय युवा अपनी पसंद या प्यार के लिए शादी नहीं कर रहा, क्यूंकि प्यार कोई जाति या धर्म देख कर नहीं होता।

भारत में सबसे ज्यादा शादियां जिम्मेवारी निभाने और बस जाने के लिए ही रही है, जैसे कि शादीशुदा लोगों में 84 फीसदी युवाओं ने घर वालों की मर्ज़ी से अरेंज मैरिज की है। वहीं दूसरी तरफ शादी ना करने वाले युवाओं में ये आंकड़ा 50 फीसदी है जो अपने घर वालों की मर्ज़ी से अरेंज मैरिज करना चाहते हैं।


“लोकनीति सीएसडीएस” की रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि 2007 में 51 फीसदी पुरुष व 37 फीसदी महिलाएं शादी नहीं करना चाहती थी, वहीं ये आंकड़ा दस वर्षों बाद, 2016 में, पुरुषों में 61 फीसदी और महिलाओं में 41 फीसदी तक पहुंच गया है I अर्थात पिछले एक दशक में 10 फीसदी पुरुषों और 4 फीसदी महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है जो शादी नहीं करवाना चाहते।


महिलाओं में ये वृद्धि पुरुषों के मुकाबले ढाई गुना कम हुई है, इसके पीछे के कारणों को देखें तो पाएंगे कि महिलाओं को निर्णय निर्माण में भागीदारी बिल्कुल ना के बराबर मिली हुई है, जिस से महिलाएं अपनी शादी का फैसला नहीं ले पाती और ना ही घर वालों को शादी ना करने के लिए मना पाती है। समाज और परिवार का भी महिलाओं पर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा दबाव रहता है कि वो शादी करे।


वहीं दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि महिलाओं की पुरुषों के मुकाबले संख्या कम है, इसलिए ये स्वभाविक है कि शादी ना करने वाले पुरुषों की संख्या ज्यादा ही होगी क्योंकि उनके लिए लड़कियां ही नहीं है तो शादी कहां से करेंगे।


तीसरा शिक्षा की भी एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जैसे कि जो बिल्कुल अनपढ़ है उनमें 94 फीसदी लड़कियों की शादी हुई है, वहीं प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं में ये आंकड़ा 87 फीसदी है। दसवीं तक कि पढ़ाई करने वाली 62 फीसदी लड़कियों ने शादी की है और ग्रेजुएशन और उस से उपर की पढ़ाई करने वाली लड़कियों में ये संख्या केवल 42 फीसदी है, अर्थात ज्यादा पढ़ी लिखी लड़कियां शादी ना करने का फैसला लेने में सक्षम हुई है, उन्होंने अपने घर वालों को इस निर्णय के लिए या तो सहमत किया है या फिर विद्रोह किया है।


एक दूसरी अवधारणा ये भी है कि जिन लड़कियों ने 10 वीं के बाद स्कूल छोड़ दिया उनकी शादी हो गई या फिर इसका उल्टा कि जिनकी शादी हो गई उन्होंने स्कूल छोड़ दिया।
परन्तु फिर भी रिपोर्ट के मुताबिक ये साफ हुआ है कि मौजूदा वैश्वीकरण और इंटरनेट के दौर में युवाओं में शादी का महत्व कम हुआ है। 2007 में 81 फीसदी युवा शादी को महत्वपूर्ण मानते थे जो कि 2016 में घट कर 52 फीसदी रह गया है, अब केवल 52 फीसदी युवा ही है जो शादी को महत्वपूर्ण मानते है परन्तु इसमें कहीं भी ये पता नहीं चलता कि इन 52 फीसदी में कितनी संख्या महिलाओं की है।


अंत में हम ये ही कह सकते है कि भारत में आज भी शादियां लड़कियों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जा रही हैं, आज भी शादियां प्यार या पसंद से नहीं हो रही हैं, आज भी जाति और धर्म शादी के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, आज भी समाज के दबाव में लड़कियों की शादी हो रही हैं।


इस स्थिति को बदलने के लिए हमें सभी को मिल कर कार्य करना होगा, समाज में एक नई अवधारणा पैदा करनी होगी जिस से लड़कियों पर शादियों के दबाव को कम किया जा सके और उन्हें उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया जा सके।

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Ashmi Sheth for Young Adult Space (YAS!), The Womb

The name Viswanathan Anand is almost synonymous to Indian chess Grand Master, but this 14-year-old girl from Chennai seems set to change things. B. Savitha Shri won the title of Woman International Master (WIM) after defeating her opponents at the Belgrade Spring Festival Chess tournament in Serbia this year. She had won her first WIM norm in 2019 at the Grenke Open in Germany and the second in the Mix-200 event at final week in Serbia. According to ChessBase India, Savitha has been the National champion thrice in her age category, under-12 World Champion. Savitha became the Woman FIDE Master in 2020 at the age of 12, with a rating of over 2100. Savitha was also the best performing female at the Lorca Open in 2019. As of January 2020, Savitha had an Elo rating of 2261, making her one of the youngest female players in Indian chess to cross 2250. She was the highest-rated girl born in 2007 or later in the April 2021 FIDE ratings.

Savitha’s father, Baskar, was an electrician in Singapore, but left his job to accompany his daughter in different events and “ensured that she evolves into a world-class chess player.” Savitha has been playing the game of chess since she was five and began playing in tournaments when she turned eight. Her interest in the game developed by watching her brother play chess: “I would sit with him and watch him play, fascinated. My father discovered my interest in chess and he encouraged me to play in tournaments. As I kept improving my game, I knew that I wanted to pursue chess,” Savitha said in an interview. As her school classes have shifted online because of the pandemic, it has been easier for her to focus more on her game. 

German chess player and co-founder cum editor-in-chief emeritus, ChessBase India, Frederic Friedel, thinks that Savitha Shri is an amazing talent and will become one of the best woman players in the years to come. “She has the ability to concentrate and really really work hard on a chess position,” he said in one of the videos for ChessBase India.

While Savitha is confident, resourceful and effortless on the chessboard, one thing she has always struggled with is finances. Savitha’s chess career has been supported by sponsorship from Microsense Networks and a crowd funding amounting to £5036 raised by Deepan Priya from London. GM R. B. Ramesh, who has been training Savitha for about four years, said to The Hindu, “She [Savitha] is a natural,” and added, “Savitha is in need of financial support.” We urge philanthropists and chess enthusiasts to extend their financial support to help India’s chess star rise higher.

To read more about Savitha’s successes and to get a peek of her games with detailed annotations, visit: https://chessbase.in/news/Savitha-s-sizzling-exploits-in-Spain

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By Anil Thakraney (Senior Journalist)

Journalist Tarun Tejpal has been acquitted by the District and Sessions Court of Goa. He was charged with sexual assault on a junior colleague inside the elevator of a hotel in Goa in the year 2013. With no direct evidence available, this turned into a case of he-said-she-said (as sexual assault cases tend to be since they usually happen inside closed spaces). The honourable judge in her wisdom decided that the survivor’s testimony was not convincing enough, and so the accused must be awarded benefit of doubt.

The judge has pointed to faulty police investigation as one of the reasons for acquittal but I will leave that part as well as other observations of the judgment for legal experts to study and opine on. What caught my attention, rather what sent me reeling, to be precise, is the following remark in the judgment: 

“It is extremely revealing that the prosecutrix’s (victim) account neither demonstrates any kind of normative behaviour on her own part – that a prosecutrix of sexual assault on consecutive two nights might plausibly show nor does it show any such behaviour on the part of the accused.” 

The questions that immediately come to mind are: Is there a set behavioural pattern that all rape survivors must follow post the assault? Is there, er, a playbook, an SOP? If so, what does it list down? Are all victims expected to quickly go hysterical, to reveal full details to family and friends, to renounce the world and become suicidal? Bollywood movies from the days of Prem Chopra and Shakti Kapoor may have depicted such stereotypical behaviour, but surely these D-grade movies can’t become the reference point in the real world.

Truth is, there is no cookie-cutter model at work here, rape victims cannot be expected to exhibit an identical behavioural pattern after the incident. Just as we don’t behave the same way after we experience a traumatic event in our lives, be it a road accident, death of a loved one, job loss, financial fraud and so on. Some of us would go ballistic, others would clam up, still others would try and act bravely, there will be those who would slip into depression, the fact is there is no standard behavioural code embedded in our DNA, moreover acquired life experiences make us react differently to the same situation. Ditto with rape victims, a clinical psychologist I spoke to listed down many possible reactions that include fear, anxiety, shock, self-blame, anger, shame/embarrassment and most importantly, denial, that ‘this can’t have happened to me’ or ‘he couldn’t have done this to me, he is such a great guy’ (studies suggest that over 90% cases of rape involve perpetrators who are known to the survivor). There is no ‘normative’ behaviour, in short. 

Even if you agree with the verdict, with due respect to the judge, a wrong message has been sent out to women at large: In a sexual assault situation, particularly when there is no witness, however traumatised you are, remember to ‘behave’ like a ‘typical’ rape victim. Or you may find it difficult to get justice. 

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By Dr. Elsa Lycias Joel

As we celebrate Buddha purnima (on 26th May, 2021), I am reminded of a great quote — ‘Women are the sun of the family.’ With the sun shining bright and beautiful in Tamil Nadu and DMK’s long engagement with women’s welfare programmes, be it micro credit or several assistance schemes for women, women are hopeful. Beyond the good and bad of the poll promises, women-centric government schemes have undoubtedly changed lives. 

On 14 October 1956, at Deekshabhoomi, Nagpur, over 20 years after he declared his intent to convert to Buddhism, Dr. Ambedkar along with 365,000 of his followers  decided to embrace Buddhism. He is perhaps one of the biggest champions of women empowerment to have existed in India. His roar, “I measure the progress of a community by the degree of progress which women have achieved” is still heard all over. The Hindu Code Bill  challenged the basic patriarchal foundation. Women’s empowerment in the Buddhist period, even before 25 centuries, carried a contemporary significance because empowerment would bring enlightenment irrespective of gender and thus enable humanity as a whole to tread the path of righteousness, truth, peace, progress, prosperity and justice. Going by history, Buddhism is known to have flourished in Tamil Nadu in two phases, firstly in the early years of the Pallava rule 400-650 AD, and secondly in the Chola period mid 9th to the early 14th century AD with centres of Buddhism in Kanchipuram, Kaveripattinam, Uraiyur and Nagapattinam. At some  point of time, Buddhism declined in Tamil Nadu after contributing a great deal to the enrichment of Tamil culture and spiritual consciousness. 

Teachings and practices of Buddhism assert that in the woman lies the womb of progress. Progressive societies owe a lot to this ideology that enabled women to have control over their own life.  To give women full freedom to participate in a religious life inspite of being criticized by the prevailing establishment is a task and Buddhist teachings are halfway there.  People still live to tell the history untold in textbooks. That is, people who resisted the imposition of Hinduism’s varna system were marginalised. Existential issues facing marginalized women are subjugation and arbitrariness masquerading as cultural practices. Lakhs of people are embracing Buddhism in various parts of India going on to prove the relevance of the faith in today’s society. Almost 87% of the 8.4 million Buddhists in India are converts. According to an IndiaSpend analysis of 2011 Census data, female literacy among Buddhists in India is higher (74.04%) than the total population average (64.63%). 

India being the birthplace of Buddhism, this religion is part of India’s spiritual heritage. Indian women must be proud to know that the core Buddhist doctrine and its salvific path are essentially inclusive and do not discriminate between genders as much as the major religion of India. That’s why women were admitted into the monastic order. Today, centuries after Buddha advocated the right of women to be ordained, I’m not surprised to know that the status of nuns has declined. Sadly, deep sexism exists in religious institutions although the founder of the religion made sure the influence of Buddhism should be such that women must always have fair play. In a country where women are reminded in no uncertain terms that this is no ideal country for women — within or outside the home, it’s not unusual to know that nuns are placed at an inferior position as compared to monks like in every other religion. That nuns should speak after the monks have spoken, sit behind the monks in rituals and ceremonies, cannot hold the highest positions in any ceremony and bow down to a monk who has just been initiated shows how inferior the women have been placed in Buddhism too.  Above all, the religious assertion that a female nun can never reach Buddhahood though she can become an arhat is farcical. Modern scholars are unsure if these rules even go back to the times of Buddha at all.  

Many a time I wonder if a religion that went beyond times to lay the essential foundations for eradicating discrimination towards women has patterns of misogyny in the form of Eight Garudhammas or  it is the cultivation of the mind (bhāvanā) that ultimately uproot the innate conditioning of all genders. There were times when nuns of Ladakh had no food to eat and a few even served their own families as domestic help. Despite the region being home to 28 nunneries, nuns never had a designated place to pray or live until 2012. Chattnyanling nunnery built by the Ladakh Nuns Association with the help of local villagers came as a much needed relief. Before the champions of women’s emancipation who advocated educational facilities and opportunities for women to make them efficient and active units in the process of religious, socio-economic and political development ushered in, women were considered inferior in India. And men seemed to have influenced the compiling, editing and interpreting of the religious doctrines. That’s why we see shades of misogyny in Christianity, Islam, Sikhism Jainism and Judaism and a whole lot in Hinduism. This inferiority issue is sure to have a greater impact in the Indian society for a long duration of time. Whatever be the Buddhist ethos, it’s effect will be negated in varying degrees by masculine superiority, by misinterpreting at least. I wish I could ask Buddha the reasons behind his initial refusal to grant the request of his aunt and foster mother, Prajāpati Gautami and her women to become monastics three times. Blame it on societal pressure and emotional barriers. After all, interacting positively with society and it’s prevailing norms helps a religion to thrive, doesn’t it!  About the 85 extra rules for the nuns and eight special rules  influencing the position of women in Asian societies that are slow to evolve, one must know that the teachings of the Buddha were only committed to writing long after his demise and whether the accounts had any veracity is still debatable. 

Leaders of Buddha’s Light International, Taiwan have publicly rejected part of the Eight Garudhammas and other rules and teachings that imply that women are inferior to men. Before and after the pandemic hit, the world has come to know Taiwan fares better with a woman at the helm of affairs. Fortunately, Buddhism has found its way everywhere. In Sweden organized Buddhism has its roots in the 1970s and traditions flourish. Sweden has almost closed 82% of its gender gap. In highly modernized societies, deeply rooted Buddhist traditions have persisted, have been adapted to changing conditions, including only those which are necessary for an inclusive society and ignoring few writings of disciples prejudiced towards women. As the most trusted religion in New Zealand, Buddhism has in a way, directly or indirectly, contributed towards a rapid social and economic change wherein women are well treated and respected and  discrimination on the basis of gender is illegal. Examples are many. So, Buddhism is also like a seed. If it falls on good soil, then it produces a crop, yielding a hundred, sixty or thirty times what was sown. 

Ideals of unconditional loving kindness and respect espoused by Buddhism will be relevant today if the gap between the ideal and practice is bridged with wisdom and nobility. Discriminatory practices and attitudes still exist in Buddhist spheres as doubts about the accuracy of the scriptures exist and misrepresentations are not clarified but viewed through the opaque prism of each culture as it spread across different regions. In India, monastic women are taking on key roles and with feminism gradually evolving, outdated religious prejudice and barriers are beginning to crumble. Virulent passages that present an ambiguous view of women must be ignored if not removed for Buddhism to flourish, so that more women walk the path of liberation to become arhats and to educate all about the consequences of discrimination. Around the world, an unacceptably large number of women are the victims of domestic violence, rape and even murder each year. Buddhism at its pristine and transformative core is genderless. It’s high time we promote any ethico-psychological system that facilitates the innate moulding of minds that makes social reforms a reality. On this Buddha Purnima, may we all reiterate the belief in Ahimsa (non-violence) and Karuna (compassion).  

To this day, religious scholars and feminists are trying to figure out what it was about that time or moment when Prince Siddhartha Gautama decided to leave behind his wife, Yasodhara, and son, Rahula to pursue enlightenment. 

Practicing an ideology/religion can sometimes be like maintaining, operating and flying a helicopter irrespective of  its design and manufacture. If someone decides to fly one, its design and manufacture doesn’t absolve the right minded aviator the responsibility of ensuring that safety and quality controls are given the highest priority. Just as insurance agencies must play a constructive role in support of better safety norms, religious leaders can choose what they profess or advocate for the betterment of humanity. Ultimately, it is the person who maintains/flies the machine, irrespective of the make, must ensure that the highest professional standards are adhered to at all times. Or don’t choose to fly it. 

May good seeds fall on fertile soil. May the dark, darker and darkest holes of religions shrink and disappear. Happy Buddha Purnima to all who practise, profess and appreciate the goodness of Buddhism.

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राजेश ओ. पी. सिंह

बाबा साहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर ने कहा था कि “मैं किसी समाज की प्रगति, उस समाज में महिलाओं की स्थिति से नापता हूं” , पंरतु आजादी के सात दशकों के बाद भी हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय है और यदि महिला ‘दलित’ है तो उसे दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है,एक जो सभी महिलाओं पर होता है, दूसरा जो दलित जातियों पर होता है।

भारतीय समाज में हालांकि दलित महिलाओं ने अपना लोहा मनवाया है, बात चाहे राजनीति की करें या प्रशासनिक सेवाओं की या और भी ए श्रेणी के पदों की तो वहां पर दलित महिलाएं अपने संघर्ष के दम पर पहुंची है।

परन्तु क्या इतने बड़े मुकाम हासिल करने के बाद भी इन दलित महिलाओं को जातिगत टिप्पणियों व जलीलता से छुटकारा मिला है? इसका जवाब है नहीं।

क्यूंकि दिन – प्रतिदिन ऐसी घटनाएं हमारे सामने आती रहती है, जहां पर किसी महिला का केवल इसलिए अपमान किया जाता है क्योंकि वह दलित है।

भारत में दलितों की एकमात्र नेता बहन कुमारी मायावती, जिन्हें विश्व की टॉप 10 शक्तिशाली महिलाओं में शामिल किया जाता रहा है, जो एक राष्ट्रीय पार्टी की अध्यक्ष है और चार बार भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी है, को भारतीय संसद में एक मनुवादी सोच के पुरुष द्वारा असंवैधानिक और निम्न दर्जे के शब्द कह दिए जाते है,परन्तु उस पर कोई खास कार्यवाही नहीं होती और इसके साथ साथ उसके परिवार को चुनावों में भाजपा द्वारा टिकट भी दिया जाता है ।

वहीं वर्ष 2019 में आंध्र प्रदेश के ‘तांडिकोंदा’ विधानसभा क्षेत्र से दलित महिला विधायक “वुंदावली श्रीदेवी” को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जातिगत शब्दो से अपमानित होना पड़ता है, परन्तु उन स्वर्ण समाज के पुरुषों पर भी कोई कार्यवाही आज तक नहीं की गई।

ऐसी अनेकों घटनाएं दिन प्रतिदिन घटित होती रहती है, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार कम से कम 10 दलित महिलाओं के साथ प्रतिदिन बलात्कार होता है, और पिछले दस वर्षों में यह 44 फीसदी तक बढ़ा है। बलात्कार के कुल 13273 मामलों में से दलित महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कारों की संख्या 3486 है, जो कि कुल मामलों का लगभग 27 फीसदी है, और ये केवल वे आंकड़े है जो प्रशासन द्वारा दर्ज किए गए है।

एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार प्रशासन की जातिगत संकीर्णता, लापरवाही और भ्रष्टाचार की वजह से आधे से ज्यादा मामलों को तो दर्ज ही नहीं किया जाता।

“स्वाभिमान सोसायटी” नामक दलित महिलाओं व अंतरराष्ट्रीय महिला अधिकारों की संस्था ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि दलित महिलाओं के साथ होने वाली सेक्सुअल हिंसा व अपराध के मामलों में 80 फीसदी अपराध सामान्य और स्वर्ण जाति के पुरुषों द्वारा किए जाते है।

केरल जैसे अग्रणी राज्य में 1971 के बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में कोई दलित महिला सांसद नहीं बनी, इस से आसानी से आंदाजा लगाया जा सकता है कि दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व आज भी पुरुष प्रधान समाज में स्वीकार्य नहीं है।

भारत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महिला कॉलेज में दलित सहायक प्रोफेसर को इसलिए क्लास लेने से मना कर दिया जाता है क्योंकि वह दलित है और दलित समाज के लिए समय समय पर अपनी आवाज़ उठाती है।

हालांकि सरकारों ने महिलाओं की स्थिति में सुधार करने के लिए नाममात्र के कार्यक्रम चलाए है और राजनीति में प्रतिनिधित्व देने के लिए स्थानीय सरकारों में एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था करी है, इसके बावजूद महिलाएं आगे नहीं बढ़ पा रही है क्योंकि इन आरक्षित सीटों से महिला को पद तो मिल जाता है परन्तु शक्तियां उनके पति या घर के अन्य पुरुष ही प्रयोग करते है।

राजस्थान जहां भारत में सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई थी, के जालोर जिले में नियुक्त ब्लॉक विकास अधिकारी जो कि एक दलित महिला है, ने पंचायतों में नवनिर्वाचित पदाधिकारियों की एक सभा बुलाई, इस सभा में महिला पदाधिकारियों के साथ आए पुरुषों को दलित महिला अधिकारी ने सभा से बाहर जाने का बोल दिया, बस इतने में ही वहां मौजूद क्षेत्र के पुरुष विधायक भड़क गए और गुस्से में उन्होंने न केवल दलित महिला अधिकारी को डांटा बल्कि साथ में असंवैधानिक शब्दों का प्रयोग करते हुए एक पुरुष अधिकारी को कहा कि “इस महिला को समझा लो वरना मैं इसे रगड़ के रख दूंगा” और विधायक यहीं नहीं रुके और अपने समर्थकों के साथ दफ्तर के बाहर धरने पर बैठ गए। यदि महिला अधिकारी दलित ना होती तो शायद उस पर ऐसी निंदनीय टिप्पणी नहीं होती।

इस घटना पर न तो राजस्थान सरकार ने, न ही राजस्थान के लोक सेवा आयोग ने और ब्लॉक विकास अधिकारी के मुख्य कार्यालय ने भी कोई कार्यवाही नहीं की ।

वहीं बात यदि महिला आयोग की करें तो यहां पर जातीय भेद स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है, चूंकि महिला आयोग बात तो महिलाओं की करता है परन्तु शर्त ये है कि महिला स्वर्ण जाति से होनी चाहिए।

अर्थात महिला आयोग ने भी इस दलित महिला अधिकारी के साथ हुए अपमानित व्यवहार पर कोई कार्यवाही की मांग नहीं की है।

यदि उपरोक्त संस्थानों और आयोगों द्वारा उचित और दृढ़ कार्यवाही की जाती तो प्रदेश में एक संदेश जाता जिस से मनुवादी स्वर्ण पुरुषों के अमर्यादित व्यवहार पर कुछ हद तक नियंत्रण लगता परन्तु ऐसा नहीं हुआ।

ऐसी घटनाओं से महिलाएं और खासकर दलित छात्राएं जब देखती है कि इतने बड़े ओहदे पर पहुंचने के बाद भी पुरुष और स्वर्ण मनुवादी समाज उन्हें कितनी गिरी हुई नज़रों से देखता है और उनका हर स्तर पर अपमान करने से बाज नहीं आता इससे न केवल उनका मनोबल गिरता है बल्कि उनमें नाकारात्मकता भी पैदा होती है।

इस प्रकार जब सब कुछ दलित महिलाओं के खिलाफ है, कोई भी संस्थान उनके समर्थन में नहीं है तो दलित समाज को इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि कैसे ऐसी निंदनीय घटनाओं को रोका जाए और यदि ऐसी घटनाएं होती है तो कैसे सरकार पर उचित कार्यवाही का दवाब बनाया जाए। ताकि दलित छात्राओं में मनोबल बढ़ाया जा सके और उन्हें जागरूक व मजबूत करने के लिए प्रेरित किया जा सके।

अब प्रश्न ये है कि जब हमने हाल ही में अपना 71 वां गणतंत्र दिवस मनाया है, मौजूदा केंद्र सरकार दलितों की हितैषी होने के दावे करती रही है, अम्बेडकर के सपनों का भारत बनाने की बात करती रही है, इसके बावजूद पुरुष प्रधान समाज में दलित महिलाओं की ये स्थिति है, इसके आलावा राजस्थान जैसे प्रदेश में जहां कांग्रेस सरकार महिला सुरक्षा व महिला सम्मान की बातें करती है वहां महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा बुरी है अर्थात इतने दशकों में भी समाज में पुरुषों की प्रधानता जारी है और महिलाओं को आज भी दूसरे दर्जे पर रखा जा रहा है और दलित महिलाओं को स्थिति का अंदाजा तो उपरोक्त अनेकों घटनाओं से लगाया है जा सकता है कि किस स्तर पर उन्हें शोषित और जलील किया जा रहा है।

इस समाजिक समस्या के समाधान के लिए हमें सभी को मिल कर प्रयास करने चाहिए।

Image Credit: https://www.idsn.org

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Here, we speak with tea plantation workers in Wayanad, Kerala with the help of a translator, who helps us understand what their daily routine looks like. While language can be a barrier, when you truly seek to understand, there are always ways to communicate. Thanks to Ms. Avani Bansal and translator Mr. Vineesh, for giving us a peek into the daily lives of tea plantation workers. While the women were camera shy, the amount of satisfaction they had, is worth learning from. This video was shot before the COVID crisis hit us in full measure.

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By Naushalya Rajapaksha

Whilst Scotland has become the first country in the world to make period products free for all, imposing a legal obligation on local establishments to guarantee that tampons and sanitary pads are available to “anyone who needs them”, period poverty is still a taboo topic, with an eternal seat in the line of issues faced by the majority of the young girls and women in Sri Lanka. With a 72nd place ranking in the 2020 UNDP Human Development Report (HDR), and 52% of the population being female, the majority of over 12 million young girls and women in Sri Lanka stand an unremitting trial to either access or afford suitable sanitary products, once a month.

The following are the prices (subject to change) of some of the mainstream sanitary napkin products (10 pc packets) available in Sri Lanka;
Fems – Rs.130/-
Eva – Rs. 145/-
Marvel Lady – Rs. 190/-
Whisper – Rs. 210/-
Soft Night Wings – Rs. 242/-

Therefore, it should be indistinctly clear to anyone with even a moderate sense of calculation, that a family with two female individuals needing sanitary products will have to incur a minimum cost of Rs. 260/- (Rs. 130 x 2) a month. Even though this may be an amount which you and I could devote with our eyes closed, it is imperative to understand that for families who are solely dependent on daily wage earners, this ‘Rs. 260/-’ could be an unaffordable and unwanted luxury. Hence, it has been observed by many academics, and advocates in this field, how young girls and women are compelled to resort to unhygienic methods of sanitation during this time of mensuration. This status quo may even be worsened during this time of the Covid’19 pandemic, which propels daily wage income earners and other low-income earners to stay at home, adding more inability to access and afford sanitary products.

According to a Knowledge, Attitude, and Practices (KAP) analysis of 720 adolescent girls and 282 female teachers in Kalutara district (2015), the following were observed; 66% were not aware of menstruation until menarche (the first occurrence of menstruation), 37% of girls miss at least one or two days of school each month due to their period, in Government-sponsored schools, there were 41% availability of soap and only 1% of principals and 6% of teachers stated that emergency sanitary pads were available, 60% of teachers thought blood impure; 80% thought bathing should be avoided, and 40% thought vaginal insertion of tampons has side effects.

Amidst the religious and other cultural barriers aggravating this situation further, when the subsisting amenities prevalent in schools are considered, the 2017 Ministry of Education (MoE), School Nutrition and Health Branch Survey provides evidence to the effect that the majority of schools have sex-segregated lavatory facilities, 88% of schools have access to water, and 98% of schools have access to adequate sanitation facilities. Nevertheless, there still exists a vast disparity in terms of access, given the destitute levels of operations and maintenance of such lavatory facilities, and the affordability of sanitary products. Thus, it is unambiguous that national-level awareness programmes be conducted to deconstruct the prevailing myths and misinformation regarding menstruation and promote the use of sanitary products and other hygienic alternatives, such as reusable sanitary pads, menstrual cups etc.

Therefore, it is imperative that the importance of Menstrual Hygiene Management (MHM) be not only recognized but be uninterruptedly implemented especially in schools and in other educational institutions, as a primary mechanism that needs fixed allocated funding, training, and persistent awareness, to mitigate if not eradicate this issue of period poverty, especially in all levels of education.

On the other hand, one can only hope that the same be applied even in the sanitary facilities afforded in court premises, legal offices, and departments, where (even paid) clean lavatory facilities, with effortless access to sanitary products be available for the female Attorneys-at-Law and other young girls and women who come to these places seeking just and equity. It will only be ironic, that they inter-alia be expected to ‘come in clean hands’ if there are no adequate places for them to even wash their hands properly.

Images courtesy of UNFPA

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By Dr. Geeta Oberoi
(Professor, National Judicial Academy, India)

I would ask all women to celebrate courage of Elizabeth I, Queen of England and Ireland. Her reign saw one of the finest developments in the history of mankind. However, I would also call upon women to mourn on murder of her brave cousin Mary, Queen of Scots, who was wrongly imprisoned and wrongly beheaded at Fotheringhay Castle in England accusing her for complicity in a plot to murder Queen Elizabeth I.

I call upon readers to respect both women and diversity that female gender have offered historically and politically. Similarly, we must celebrate contribution of our first female Prime Minister Indira Gandhi for all the courage she has shown amidst as difficult circumstances as Elizabeth I would have faced in her times from all male courtiers. She too changed India considerably and contributed to either establishment or strengthening of every institution that we see around us. I do know that there is a pressure to only remember emergency period as if this was the only worst period in the history of this land. As if no wrong ever happened in any period pre-emergency or in any time after conclusion of emergency in India. I therefore ask all women to celebrate every decision taken by women – and not be carried away by just the faults on their part.

For faults are committed by all genders and not limited exclusively to female gender. Elizabeth I cannot be judged on premise of execution of her cousin Mary alone, howsoever, wrongful that execution was and so also we Indians must look up to Indira Gandhi beyond lenses of decision to declare emergency. Both Elizabeth I and Indira Gandhi took some political wrong decisions but those political wrong decisions are not the only ones to be  remembered.

For a change, let us celebrate both these women and all their decisions, even if they were politically incorrect, as all their decisions brought real change in the world. The reign of Elizabeth I is known as the golden age in English history. It is renowned as one of the most splendid ages in English literature and a great age of English exploration. It was also an era which instilled national pride in the people of England.

Among the most well known achievements of Queen Elizabeth are: the defeat of the great Spanish Armada, which is regarded as one of the greatest military victories in English history; and the Elizabethan Religious Settlement, which provided a long lasting middle way between Roman Catholicism and Protestantism. When Elizabeth I took over the throne of England, she inherited a virtually bankrupt state from previous reigns. She thus introduced frugal policies to restore fiscal responsibility. Her fiscal restraint cleared the regime of debt by 1574, and ten years later the Crown enjoyed a surplus of £300,000.

Similarly, Indira Gandhi whose works that led to India’s self-sufficiency in food grain production, success in the Pakistan war which resulted in creation of Bangladesh in 1971, nationalization of private banks, first nuclear test at Pokhran, her attempts to control militancy that cost her life, her active interest in arts and culture and her efforts in preservation that led to setting up of so many museums, her love for flora and fauna that provided protection from pollution in terms of green belts and so many other decisions – cannot be overlooked by wearing sunglasses tinted with prejudices of menkind – who even wishes to take away our liberty to fault.

I also ask readers to judge execution of 37 years old Marie Antoinette carefully – by not celebrating it, but by condemning it and mourning it. Marie Antoinette whose husband was killed, who was imprisoned, whose head after the execution when it fell on the ground was shown to the crowd, who cried: “Vive la République!” I ask today in 2021, has the gap between the rich and the poor reduced in France after execution of Marie Antoinette? Is society equal now? Do we not see everywhere rich showing their pictures of extravagance on their instagram accounts and at the same time thousands dying in extreme poverty not even cared for by people who wear undergarments worth millions? So, even if, assuming, that Marie Antoinette was insensitive, was she not entitled to human imperfections? Has poverty, inequality, injustice, unfairness evaporated from the French part of the earth after execution of Marie Antoinette?

I therefore call again women readers to celebrate- Elizabeth I (1558-1603), Marie Antoinette (1775-1793), Indira Gandhi (1917-1984) and their perfection as well as imperfections, for faults are natural and cannot be avoided howsoever perfect a human being may claim to be.  

Note : First Published In ‘Rising Kashmir’

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